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रचनाः अरुण कुमार पाण्डेय ‘अभिनव अरुण’
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

रेडियो प्रसारण कई अर्थों में भिन्न है। एक ओर जहाँ टेलीविजन अथवा कोई भी दृश्य माध्यम चाहे वह मोबाइल ही क्यों न हो, वह आपका सम्पूर्ण ध्यान चाहता है, जबकि आप रेडियो प्रसारण से अपने अन्य उपक्रमों में रत रहते हुए भी इसका लाभ ले सकते हैं।

रेडियो प्रसारण की भाषा

- अरुण कुमार पाण्डेय ‘अभिनव अरुण’

भारतीय चिन्तन परम्परा में जगत में जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति के साथ-साथ उनकी अभिव्यक्ति क्षमता एवं माध्यम को दैवी कृपा माना गया है। वाणी द्वारा अभिव्यक्ति दो भागों में विभक्त मानी जाती है, ‘परा वाक्’ एवं ‘अपरा वाक्’। हम जिस माध्यम का प्रयोग करते हैं, वह ‘अपरा वाक्’ है। हम जो भी देखते, सुनते, महसूस करते उसकी अभिव्यक्ति अथवा उसके सम्प्रेषण के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। मनुष्य ही नहीं समस्त जीवों की अपनी भाषा-बोली होती है। भाव-भंगिमाओं, संकेतों और भाषा के प्रयोग से सम्प्रेषण कालान्तर में सहज और सटीक होता गया है। आज भाषा सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की ताकतवर माध्यम है।

सूचना क्रांति के विस्फोट के युग में लिखित माध्यम अथवा पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों ने ही नहीं वरन रेडियो, टेलीविजन और अब अंतरजाल सुविधा युक्त मोबाइल ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन सब में रेडियो प्रसारण कई अर्थों में भिन्न है। एक ओर जहाँ टेलीविजन अथवा कोई भी दृश्य माध्यम चाहे वह मोबाइल ही क्यों न हो, वह आपका सम्पूर्ण ध्यान चाहता है, जबकि आप रेडियो प्रसारण से अपने अन्य उपक्रमों में रत रहते हुए भी इसका लाभ ले सकते हैं। इससे जुड़े रह सकते हैं। आज एफ़.एम. चैनल आ जाने से और इसकी मोबाइल पर उपलब्धता सुलभ होने के कारण रेडियो प्रसारण की उपयोगिता बढ़ी है। पारंपरिक प्रसारण पद्धति से इतर आज एफ़.एम. चैनल मनोरंजन के साथ-साथ ‘टू-वे’ संपर्क का ज़रिया बन गए हैं और इनके आने से दैनंदिन जीवन के कई काम आसान से हो गये लगते हैं।

आज भाषा को लेकर चर्चा ज़ोरों पर है। दरअसल एक होते हुए भी हर माध्यम की अपनी अलग अभिव्यक्ति प्रक्रिया होती है, उसके अलग मानक होते हैं। एक अहम् तथ्य यह है कि भाषा परिवर्तनशील है और उसके बदलाव व निर्माण की एक सतत प्रक्रिया है। तमाम प्रसारण अथवा जनसंपर्क के माध्यम समाज के अंग हैं। इनमें कार्य करने वाले यानी इनकी सामग्री परोसने वाले भी समाज से ही आते हैं, हाँ वे भाषा व्याकरण और चेतना के स्तर पर परिष्कृत एवं विशुद्ध हों ऐसी अपेक्षा की जाती है। इस प्रकार किसी भी माध्यम की भाषा उस दौर की भाषा होती है। निःसंदेह सत्तर की जिस भाषा में प्रसारण अथवा रिपोर्टिंग होती थी, वह भाषा आज बहुत हद तक बदल गयी है। साहित्य ने भी भारतेंदु, खत्री, प्रसाद, प्रेमचंद से लेकर आज के दौर के अपने परिवर्तन और अपनी स्थापना यात्रा पूरी की है।

रेडियो वाचिक परम्परा का माध्यम

रेडियो वाचिक परम्परा का साधन और माध्यम है। उच्चारण की भाषा और लेखन की भाषा में भिन्नता समझना आवश्यक है। बोलने में हम किसी भी शब्द को इस प्रकार उच्चरित करते हैं कि वह आकर्षक हो, मन मोह ले। गायक भी लिखे हुए गीत-ग़ज़ल ही गाता है, किन्तु वह लिखे हुए को पढ़ने से अधिक आनंददायक होता है। उद्घोषणा या आर.जे. का कार्य भी ठीक इसी प्रकार है। भाषा को लेकर जब चर्चा की जाती है, तो यह बात महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि रेडियो सुनने के लिए किसी विशेष योग्यता की यहाँ तक कि अक्षर-ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं होती। आज सामाजिक परिवर्तन के दौर में रेडियो मास यानी एक बड़े समूह के सूचना – मनोरंजन का माध्यम है। इस लिए रेडियो प्रसारण की भाषा सहज ग्राह्य होनी चाहिए। यह समझने की बात है कि जो कुछ नहीं जानता हम उसे रेडियो के माध्यम से वह बात नहीं बता सकते और जो सब कुछ जानता है वह भला रेडियो सुनेगा ही क्यों? इस प्रकार रेडियो-प्रसारण इन दोनों वर्गों के बीच के श्रोता वर्ग के लिए होता है। एफ़.एम. चैनलों पर तो कम किन्तु आकाशवाणी के कई कार्यक्रम विशेष श्रोता वर्ग के लिए होते हैं। जैसे महिलाओं के लिए, बच्चों के लिए, युवाओं-कामगारों-किसानों-ग्रामीणों के लिए अलग अलग कार्यक्रम होते हैं। इस प्रकार भाषा का निर्धारण आसान हो जाता है। हम हिंदी के किसी साहित्यिक कार्यक्रम की भाषा में युवाओं और बच्चों के लिए कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत कर सकते हैं। एक और बात महत्त्वपूर्ण है कि दृश्य श्रव्य माध्यम तात्कालिक रूप से विषय स्थापना में अधिक सशक्त सिद्ध होता है। यही बात पढ़े जाने के माध्यम में भी है। व्यक्ति समझने तक किसी अंश विशेष को बार-बार पढ़ सकता है। लेकिन रेडियो में एक बात एक बार ही बोली जाती है और बोले हुए वाक्य बस एक बार सुने जाते हैं। अतः यहाँ तदनुरूप भाषा का होना और प्रभावी सम्प्रेषण क्षमता का होना अनिवार्य हो जाता है। रेडियो की अपनी कमियाँ हैं, तो एक बड़ा लाभ भी है वह है श्रोताओं में असीम कल्पना और सृजन-शक्ति के विकास और निर्माण का माध्यम बनता है रेडियो। एक ही प्रसारण का भिन्न-भिन्न स्तर पर प्रभाव और उसकी ग्राह्यता होती है। सुने जाने में कल्पना-क्षमता का उत्कृष्ट प्रयोग इसे अनूठा बनाता है।

आम फ़हम की भाषा

रेडियो की भाषा निःसंदेह जन भाषा होनी चाहिए किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि रेडियो प्रसारक भाषा और इसके व्याकरण के प्रति सजग न रहे। संचार माध्यम समय और समाज के भाषा संस्कार निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक पीढ़ी जो सुनती, पढ़ती और देखती है, वही उसकी खुद की बोली भाषा बनती जाती है। अशुद्ध उच्चारण, गलत व्याकरण और विभिन्न भाषाओं का सम्मिश्रण या कुछ हिंग्लिश-सी खिचड़ी पका देने से हम तात्कालिक रूप से मनोरंजन के कारक बन सकते हैं। किन्तु इसे कदापि सही नहीं ठहराया जा सकता। आज इसी कूट-सी, अशुद्ध-सी भाषा के कारण लिखने, पढ़ने की प्रवृत्ति में ह्रास आया है। यदि हम ठीक-ठाक हिन्दुस्तानी ज़बान में भी बात करें अथवा लिखें, तो लोग आश्चर्य करते हैं और व्यक्ति को किताबी तक ठहरा देते हैं। नई हिंदी का चलन चल पड़ा है, किन्तु इसके पक्षधर वही लोग हैं, जो भाषा व्याकरण को लेकर संजीदा नहीं। तात्कालिक लाभ के लिए ‘कुछ भी करने-शॉर्टकट’ लेने के आदी हैं।

बोलने के लिए सुनना ज़रूरी

जिस प्रकार एक अच्छा लेखक बनने के लिए एक अच्छा पाठक होना चाहिए, उसी प्रकार एक अच्छा वक्ता बनने के लिए अच्छा श्रोता बनना अनिवार्य है। हमें अपने क्षेत्र विशेष के रहन- सहन, परम्परा से भिज्ञ होना चाहिए। हमारी बोली हमारे श्रोता वर्ग में पैठ बनाए इसके लिए अपनी विशिष्ट शैली यानी अंदाज़ पर ध्यान देना भी ज़रूरी है। हमारी भाषा के साथ-साथ हमारा सामान्य ज्ञान भी अद्यतन हो, इसके नियमित तौर पर पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन आवश्यक है। इससे परोक्ष भाषा संस्कार भी बनते जाते हैं। एक समय अमीन सायानी, मनोहर महाजन, किशन शर्मा, ब्रजभूषण, कमल शर्मा जैसे रेडियो उद्घोषकों की जगह हर दिल में थी। अमीन सायानी को सुनते हुए कितने ख़ुद उन-सा बोलने का अभ्यास मात्र करते-करते अच्छे एनाउंसर बन गये। एक अंतर आया है और वह बड़ा है, आज हम सुनते नहीं। यह कहना अनुचित न होगा कि आज रेडियो में करियर को भी लोग आजीविका का साधन मात्र मानते हैं, जबकि यह परफ़ोर्मिंग आर्ट है। विशुद्ध वैयक्तिक कला। विश्वविद्यालयों में या किसी प्रशिक्षण संस्थान में हम भाषा, व्याकरण, स्किल, टिप्स बता सकते हैं, मशीनों और सॉफ़्टवेयर का प्रयोग समझा सकते हैं, किन्तु माइक ऑन होने पर एनाउंसर या आर.जे. का निजी हुनर ही बोलेगा और काम आएगा। अभ्यास से इसे निखारा जा सकता है। आज विशेषकर एफ़.एम. पर मिमिक्री, बनावटीपन, हरियाणवी-पंजाबी- अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी का चलन बढ़ा है। यह विशुद्ध मनोरंजक है, लोकप्रियता भी इससे मिलती है किन्तु इसमें स्थायित्व नहीं इसका हमें ख़याल रखना चाहिए। विशेषकर विश्वविद्यालयों में निर्मित हो रही पीढ़ी, जो संचार माध्यमों में अपना करियर बनाने को इच्छुक है, उसे इस व्यामोह के वातावरण में अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक ज़िम्मेदारियों का भी एहसास होना चाहिए। किसी रेडियो शो को लोकप्रिय बनाने मात्र के उद्देश्य से हम किसी व्यक्ति विशेष को उद्वेलित करके उसे ही ‘बकरा’ नहीं बनाते, बल्कि हम आने वाले समय से साथ और खुद के साथ भी छल कर रहे होते हैं।

अपने श्रोता वर्ग को समझें

यदि बतौर प्रसारक हम अपने प्रसारण माध्यम, उद्देश्य, विषयवस्तु और अपनी टारगेट ऑडीयेंस को समझते हैं, तो भाषा का निर्धारण सहज हो जाता है। वास्तव में, प्रसारक की भाषा उसके संस्कार और आचरण का हिस्सा होना चाहिए। सहजता ही ग्राह्यता की पहली सीढ़ी है और इसी में सम्प्रेषण की सफलता भी। हमें साहित्य कला पठन-पाठन में अभिरुचि जागृत करनी चाहिए। यदि हम ऐसा कर पाने में समर्थ हुए, तो हमें अलग से भाषा को लेकर सचेत होने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हम स्वयमेव प्रभावी एवं आकर्षक भाषा और लहज़े के स्वामी होंगे और सफल प्रसारक भी। प्रसारण की भाषा निःसंदेह सामने वाले अथवा श्रोता पर अपना प्रभाव जमाने के लिए नहीं, अपनी विद्वता के प्रदर्शन के लिए भी नहीं बल्कि स्वयं को उसके मित्रवत बनाने के अनुरूप होनी चाहिए। हमारी बोली, हमारे लहज़े में मिठास हो, अपनापन हो और यह तभी होगा जब भाषा का संस्कार मज़बूत होगा और हमारे भीतर आत्मविश्वास होगा। हमें किताबी अथवा बनावटी भाषा लहज़े से बचना चाहिए। ध्यातव्य है, हम मात्र प्रसारक नहीं होते, वरन समाज के भावी भाषा-संस्कार के माध्यम भी होते हैं। इस नाते हमारी ज़िम्मेदारी अधिक होती है। हमें फ़ीडबैक भी लेते रहना चाहिए कि अपने चैनल पर और अन्य चैनलों के उद्घोषकों के बीच हमारा स्थान श्रोताओं के दिलों में कितना है? हम अपनी आलोचनाओं से कितना सीख पाते हैं? प्रतियोगिता को स्वस्थ मन मानस से स्वीकारते हैं कि नहीं? यह बातें महत्त्वपूर्ण हैं। हमें दूसरों को सुनना चाहिए और अपने रिकॉर्डड कार्यक्रम को भी। तभी हम अपने में निरंतरता से निखार लाने में समर्थ होंगे। कभी किसी की नक़ल न करें। भाषाई पकड़, मधुरता, अपनापन और प्रभावी वाचन के ज़रिये आप अपनी शैली विकसित करें। इस प्रकार यदि धीरे-धीरे भी आगे बढ़ते हैं, तो यह पहचान आपकी अपनी होगी और स्थायी भी। आपको अपनी आवाज़ से, अपने काम से प्यार होना चाहिए, जुनून की हद तक। एक मीडिया कर्मी की तरह एक उद्घोषक अथवा आर.जे. की नौकरी भी चौबीस घंटे की होती है। आपको हर घड़ी सचेत और अपने आसपास के घटनाक्रम के प्रति सजग और ग्राह्य होना चाहिए। किसी भी विषय पर बात करने के लिए सामान्य ज्ञान अपेक्षित है। यह पत्र-पत्रिकाओं के अधिकाधिक पठन-पाठन से संभव है। इस विधि से स्वयमेव भाषा का संस्कार विकसित होगा और आपका शब्द-भण्डार समृद्ध होगा।

क्षेत्रीय प्रभावों से मुक्ति अपेक्षित

यह सत्य है कि हर क्षेत्र की अपनी बोली होती है। यहाँ तक कि इसका खड़ी बोली में बोलने पर प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। आप पंजाब के व्यक्ति की हिंदी सुनें, बिहार के व्यक्ति की सुनें और बंगाल के व्यक्ति की सुनें, प्रत्येक में उस क्षेत्र की बोली का असर दिखाई पड़ता है। किन्तु एक अच्छे प्रसारक को स्वयं को इस दोष से मुक्त करना होता है। आपके बोलने का टोन पंजाबी, हरियाणवी, भोजपुरी अथवा बांग्ला भाषा आदि के क्षेत्रीय प्रभाव से मुक्त हो यह प्रयास करना चाहिए। कला साधना है, किन्तु यह साधना ही आपको तराशती है और समाज में आपका विशिष्ट स्थान बनता है।

ख़तरा भाषा पर नहीं शुद्धता पर

हिंदी बाज़ार और इसके अर्थशास्त्र की भाषा है। मूल चिंता इसपर खतरों की नहीं, बल्कि चिंता देवनागरी की है, उसके शुद्ध और व्याकरण सम्मत स्वरूप की है। हमें एफ़.एम. प्रसारण से कोई उज्र नहीं वरन यह स्वीकारने में संकोच नहीं कि इस माध्यम से रेडियो को पुनर्जीवन मिला है, परन्तु साथ-ही-साथ हम जैसे भाषा के प्रति सु-आग्रह ग्रस्त प्रसारकों की चिंता भविष्य को लेकर है। अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बिना भाषा संस्कार बिगाड़े भी हम रेडियो की भाषा को रोचक, मनोरंजक और प्रभावपूर्ण बना सकते हैं और इस माध्यम का हित एवं स्थायित्व इसी में होगा।

प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में भिन्नता

व्यावहारिकता के धरातल पर बात करें, तो प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर होना चाहिए। बोलचाल में जिस प्रकार हम अनेक साहित्यिक तथा क्लिष्ट शब्दों एवं किताबी भाषा का प्रयोग नहीं करते, उसी प्रकार हमें रेडियो पर बोलते समय भी उन शब्दों और वाक्यों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिन्हें जानने-समझने के लिए समय देना पड़े या शब्दकोश का सन्दर्भ लेना पड़े। ‘अन्योनाश्रित’, ‘प्रत्युत्त्पन्नमति’, ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘अन्वेषण’, ‘गवेषणात्मक’, ‘अन्तर्निहित’, ‘अवलोकनार्थ’ आदि शब्द लिखे ही अच्छे लगते हैं। इसी प्रकार अनेक शब्दों के संक्षिप्त रूप समाज में प्रचलित होते हैं, जैसे ‘यू.एस.ए.’, ‘डी.एल.डब्ल्यू.’ और ‘एस.बी.आई.’ आदि, लेकिन जब हम बोलने के माध्यम में हैं, तो हमें शब्द के पूरे रूप का प्रयोग करना चाहिए। यह इसलिए भी कि संभव है कुछ श्रोता डी.एल.डब्ल्यू. का अर्थ डीजल लोकोमोटिव वर्क्स यानी डीजल रेल कारखाना न जानते हों। हमें कई पारंपरिक प्रयोगों मसलन जैसा कि कहा गया है, ‘ध्यातव्य है कि’, ‘उपरोक्त’, ‘क्रमशः’, ‘निम्नलिखित’ एवं ‘अनुस्मारक स्मृति-विस्मृति’ जैसे शब्दों के प्रयोग से भी बचना चाहिए। ‘द्वारा’, ‘यथा’, ‘तथा’ व ‘एवं’ जैसे तमाम शब्दों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। ‘सरकार द्वारा’ के लिए ‘सरकार ने’, ‘यथा’ के लिए ‘जैसे’ और ‘तथा’, ‘व’ और ‘एवं’ के लिए मात्र ‘और’ का प्रयोग उद्घोषक अथवा वाचक या आर.जे. को करना चाहिए। जैसा कि पूर्व में लिखा गया है, रेडियो कोई किताब नहीं, न समाचार-पत्र है, जिसे बार-बार पढ़ा जा सके। न ही यह ऐसा माध्यम है, जिसमें रिकॉर्डिंग श्रोता के पास हो और वो इसे बार-बार सुन सके। इस माध्यम में श्रोता बात को एक बार ही सुनता और उसी एक बार में उसे समझ जाना होता है। इसलिए एक अच्छे प्रसारक के वाक्य छोटे और सरल होने के साथ उसकी आवाज़ की अदायगी रोचक और प्रभावी होनी चाहिए। भाषा को बोधगम्य और सरल होना चाहिए किन्तु स्वरूप एवं व्याकरण के निकष पर गलत कदापि नहीं। ध्यान रहे आपके श्रोता वर्ग में हर तबके और आयु वर्ग के लोग सम्मिलित होते हैं।

भाषा कार्यक्रम की प्रकृति के अनुरूप हो

रेडियो की भाषा में प्रचलन के उर्दू अथवा अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग से कोई गुरेज़ नहीं, किन्तु यह सर्वथा कार्यक्रम के प्रकृति के अनुरूप हो। जैसे भजनों के कार्यक्रम या आध्यात्मिक प्रस्तुतियों के लिए हम अंग्रेज़ी-उर्दू के शब्दों का प्रयोग न करें तो बेहतर। एक उदाहरण से इसे समझें - आपको ‘उधो करमन की गति न्यारी’ भजन प्रसारित करना है और आप कम्पीरिंग अथवा भूमिका में ‘ऊपर वाले का इन्साफ़ अजूबा है हर शख्स अपने काम के मुताबिक ही उसका सिला पाता है’ लिखते हैं, तो यह तार्किक रूप से भले न गलत हो, पर यह प्रस्तुति अनुकूल नहीं। इसके स्थान पर ‘नियंता का न्याय अनुपम है, प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही प्रतिफल पाता है।’ इसी प्रकार जब हम फ़िल्मों के गीत प्रसारित करें, तो हमें हलके-फुलके लहज़े में अपनी बात संक्षेप में कहनी चाहिए। बच्चों के लिए, महिलाओं के लिए, किसानों के लिए, विद्यार्थियों के लिए जब कार्यक्रम प्रस्तुत करें, तो हमें उसके स्तर पर आकर अपनी बात कहनी चाहिए। यह आपको अपने श्रोता से कनेक्ट करने में मददगार होता है।

उच्चारण की शुद्धता

एक अन्य बात महत्त्वपूर्ण है कि अंग्रेज़ी और उर्दू के कई शब्दों का उच्चारण हमारी हिंदी परम्परा से थोड़े अलग हैं। जैसे अंग्रेज़ी में ‘फोन’ नहीं ‘फ़ोन’ है, ‘जेब्रा’ नहीं ‘ज़ेब्रा’ है। उसी प्रकार उर्दू में ‘गजल’ नहीं ‘ग़ज़ल’ है, ‘फायदा’ नहीं ‘फ़ायदा’ है, ‘जाया होना’ और ‘ज़ाया होना’ में अर्थ का भेद है, यह अर्थ भेद ‘जलील’ और ‘ज़लील’ में भी है, ‘शबाब’ और ‘सवाब’ में भी। ‘गम’ अंग्रेज़ी में ‘गोंद’ को कहते हैं, जबकि यही ‘ग़म’ यानी ‘ग’ में नुक्ता लग जाने पर ‘ग़म’ = ‘दुख’ हो जाता है। हिंदी में कमर शरीर का अंग है, जबकि यही क में नुक्ता लग जाने पर ‘क़मर’ यानी ‘चाँद’ हो जाता है। ‘शरीर’ और ‘सरीर’ के अर्थ में भेद है। इस प्रकार अनेक शब्द हैं, जिनका अशुद्ध उच्चारण अर्थ का अनर्थ कर सकता है। इसलिए हम जब भी बोलचाल के इन लोकप्रिय अंग्रेज़ी-उर्दू शब्दों का प्रयोग करें, तो उसके शुद्ध वाचन को जान लें और उसका अभ्यास कर ही प्रयोग में लाएँ। ख़तरा सिर्फ अंग्रेज़ी और उर्दू के ‘ज, ज़, फ, फ़, ग, ग़, क़, क़, ख, ख़’ को लेकर ही नहीं बल्कि हिंदी के ‘स, श, ष’ के उच्चारण को लेकर भी है। उच्चारण की शुद्धता रेडियो वाचन-प्रसारण में वांछित ही नहीं अनिवार्य है।

मानकों का ध्यान आवश्यक

भाषा में मानकों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है। वर्तनी, लिपि व्याकरण एवं उच्चारण के मानकों का निर्धारण ही नहीं उनका अनुपालन नितांत आवश्यक है। हिंदी की विशिष्टता है, इसे जैसा लिखते हैं, वैसा ही बोलते हैं। इसलिए यदि हम शुद्ध लिखना जानते हैं, तो शुद्ध बोलने का कार्य आसान हो जाता है। अतः भाषा, वर्तनी, व्याकरण का ज्ञान ज़रूरी हो जाता है। शुद्ध प्रभावी बोलने से श्रोताओं के मन मानस में उद्घोषक कहा हुआ अंकित होता जाता है। रेडियो एक श्रव्य माध्यम है, इसमें कल्पना की असीम संभावना निहित होती है। अक्सर हमें रूपकात्मक, चित्रात्मक अभिव्यक्ति सिर्फ़ बोले जाने द्वारा करनी होती है। जब हम फ़ीचर अथवा रूपक, आँखों देखा हाल, कोई कविता या कहानी का वाचन कर रहे होते हैं, तो उस भाव को अनुभव कर बोलना होता है। श्रोता अप्रत्यक्ष रूप से हमारे बोले गये शब्द के साथ हमारी अनुभूति का भी अनुपान करता है। सीधे तौर पर अपनी बात कहें, जैसे ‘ज़िलाधिकारी वाराणसी’ के स्थान पर ‘वाराणसी के ज़िलाधिकारी’ कहना समीचीन होगा। 2.38 लाख बोलना हो, तो ‘दो दशमलव तीन आठ लाख’ के स्थान पर ‘दो लाख अड़तीस हज़ार’ बोलना चाहिए। रेडियो में भी सूचना, विज्ञापन, स्पॉट, जिंगल, वार्ता, रूपक सबकी भाषा में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता है। अतः हमें कंटेंट और उसके उद्देश्य के प्रति सजग रहते हुए भाषा का चयन करना चाहिए।

सत्य बोलें, प्रिय बोलें

प्रसारण में किसी जाति, वर्ग, धर्म, समूह को बुरा लगे ऐसा नहीं बोलना चाहिए। प्रचलित उक्ति है ‘सत्यम् ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम् अप्रियम’। यानी सत्य बोलें, प्रिय बोलें किन्तु अप्रिय सत्य न बोलें। किसी व्यावसायिक उत्पाद का प्रचार हो ऐसा भी नहीं बोलना चाहिए यथा हमें ‘साबुन से नहाना और हाथ धोना चाहिए’ बोलना उचित है न कि ‘हमें डेटौल से नहाना चाहिए’। हमें अपने राष्ट्र एवं शासन के अनुरूप ही नीतिगत बातों पर बोलना चाहिए। शत्रु-मित्र देशों का भान हमें हमेशा रखना चाहिए। अश्लील वीभत्स भाषा, अपुष्ट एवं अफ़वाह आधारित ख़बरों-सूचनाओं का समावेश वाचन में नहीं करना चाहिए। साथ ही साथ न्यायालय में चल रहे मामलों पर भी अपनी अलग से राय नहीं रखनी चाहिए। प्रसारक की भूमिका पक्षकार की नहीं बल्कि तटस्थ होनी चाहिए। आजकल अनेक टीवी चैनलों पर चिल्ला-चिल्ला कर बहस के संचालन की नई प्रवृत्ति विकसित हुई है, किन्तु इसका समर्थन कदापि नहीं किया जा सकता। उद्घोषक एवं आर.जे. अपनी शैली विकसित करें, किन्तु इन तमाम बातों का ध्यान रखें। अनुशासन के दायरे में रहकर ही दीर्घकालिक और स्थायी सफलता पाई जा सकती है।

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