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रचनाः डॉ. आनन्द कुमार सिंह
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

रामायण और महाभारत ये दोनों महाकाव्य हमारी भारतीय संस्कृति को रचते हैं। हम देखते हैं कि इन काव्यों में मनुष्य के संघर्ष पक्ष और सिद्धि पक्ष को किस तरह से वाल्मीकि और व्यास जी ने उठाया है और उनके भीतर से ही अपने चरित्रों की सृष्टि की है।

भारतीय संस्कृति : जीवन विवेक की साहित्यिक परम्परा

- डॉ. आनन्द कुमार सिंह

भारतीय संस्कृति के निर्माण में जिन प्रमुख कारकों का योगदान है, उसमें सभी कलाएँ और विद्याएँ तो हैं ही। प्रमुख हिस्सेदारी साहित्य की है। वह सब जो लिखा गया किसी न किसी प्रकार का साहित्य है, वांगमय है। लेकिन जिसे हम साहित्य कहते हैं, उसका आशय उस विशेष तत्व से है, जिसे हम मनुष्यता के मूल्य कहते हैं और जिसके केंद्र में मनुष्य की भावनाएँ हैं, उसके सुख-दुख हैं और उसकी पीड़ा और छटपटाहट है, ऊपर उठने की लालसा है। वैदिक साहित्य हो या पौराणिक सभी में मनुष्य के दुख-दर्द की कहानी ज़रूर मौजूद है।

रामायण और महाभारत के विकास में मनुष्य की महत्वाकांक्षी वृत्तियाँ हैं, जो अपना स्वार्थ साधना चाहती हैं। उनसे उत्पन्न घात-प्रतिघात, हिंसा और युद्ध, लोभ-लालच-कृपणता-उदारता, प्रेम के दोनों पक्ष-संयोग और वियोग, हार-जीत, आशा -निराशा, करुणा और शोक आदि सभी वृत्तियाँ मिलकर मनुष्य को बनाती हैं।

इसलिए रामायण और महाभारत ये दोनों महाकाव्य हमारी भारतीय संस्कृति को रचते हैं। हम देखते हैं कि इन काव्यों में मनुष्य के संघर्ष पक्ष और सिद्धि पक्ष को किस तरह से वाल्मीकि और व्यास जी ने उठाया है और उनके भीतर से ही अपने चरित्रों की सृष्टि की है। रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हों अथवा महाभारत के योगेश्वर कृष्ण, ये दोनों ही जीवन की संघर्ष यात्रा को बहुत नज़दीक से देखते हैं और कुछ उदाहरण इस तरह प्रस्तुत करते हैं, जिनसे मानवीय विवेक की प्रतिष्ठा होती है।

मनुष्य निरा पशु वृत्तियों का आश्रय नहीं है। उसके भीतर एक उदारचेता महान चेतना भी छिपी हुई है, जो बड़ी मानवता को संरक्षण देती है। इन कहानियों में हमारे महान चरित नायकों ने त्यागमय जीवन और निष्काम कर्म का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया है, जिससे हमारा सामान्य जीवन रोशनी से जगमगा उठता है। रामायण में वियोग के इर्द-गिर्द एक कहानी बुनी गयी है, जिसकी शुरुआत ही क्रौंच पक्षी के वियोग से होती हुई, दशरथ और श्री राम के वियोग, कौशल्या और श्री राम तथा उर्मिला और लक्ष्मण के वियोग में शीघ्र ही बदल जाती है। थोड़ा ही आगे बढ़ने पर सबसे बड़ी वियोग गाथा सीता और राम के वियोग की है। मिलन और बिछोह, फिर मिलन, फिर बिछोह। अंत में सीता पृथ्वी में समा जाती हैं। यह चिरकालिक वियोग एक मानवीय धरातल पर अपनी उदात्त गरिमा के साथ प्रकट होता है। श्री राम की कहानी ऐसा विकल प्रभाव छोड़ती है और उनकी संघर्ष गाथा इतनी विकराल है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी हमें उसी सघनता से प्रभावित करती है। क्या सीता की पवित्रता और राम के संघर्ष को छोड़कर भारत की संस्कृति का कोई अध्याय लिखा जा सकता है? नहीं। इसी तरह चरित्र सृष्टि में जैसा चरित्र भरत और हनुमान तथा रावण और मेघनाद का है, जिससे रामकथा ओजस्वी बनती चली गयी है, उनके बिना भी हमारी संस्कृति नहीं बनती। स्वयं वाल्मीकि ने ही ऐसी आदर्श छवियाँ नायक-प्रतिनायक और खलनायकों की बनायी हैं कि वे सभी कहीं न कहीं हमारी मानवीय लालसाओं और अभीप्साओं के प्रतीक बनकर उभरते हैं। ऐसे महाप्रतीक ही शताब्दियों से हमारी संस्कृति को रचते आए हैं। रामलीला हमारी समावेशी संस्कृति का अंग है। आर्य-अनार्य के झगड़ों के मिट जाने के बाद भी एक सांस्कृतिक नैरंतर्य हम सबको लगातार प्रभावित करता है और हमारे भीतर इस युद्ध को दोबारा रचता है, जिससे हम आनंदित होते हैं।

महाभारत की गाथा हमारे जीवन की कटु प्रवृत्तियों के बहुत निकट लगती है। पांडवों और कौरवों का द्वन्द्व और भयानक युद्ध, सगे संबंधियों की सत्ता विषयक महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक है। यह दो प्रजातियों का संघर्ष नहीं है, बल्कि दो परिवारों की गाथाएँ हैं, जो अपनी संघर्षमयता में समूचे भारतवर्ष को लपेट लेती हैं। हम चाहें या न चाहें, हमें कोई न कोई पक्ष चुनना ही पड़ जाता है। यह हमारे जीवन की समकालीन प्रवृत्तियों के बहुत क़रीब है। महाभारत की पीड़ा विश्वव्यापी युद्ध और शांति के द्वन्द्व को हमारे सामने खोलकर प्रस्तुत करती है, जिसमें हम अपने आप को पक्षधर मानने लगते हैं। उससे हमारा निस्तार नहीं होता। युद्ध का परिणाम अंत में जिस भयानक उदासी को हमारे सामने प्रस्तुत करता है, उससे हमारे समस्त मानवीय मूल्य ही काँप जाते हैं।

महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ में प्रकट होने वाली ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ हमारी संस्कृति का सिरमौर बनकर प्रकट होती है। आत्मा की अमरता और निष्काम कर्म की व्याख्या कर भगवान श्री कृष्ण जीवन का नया विज्ञान प्रस्तुत करते हैं, जो हमारे लिए स्वतंत्रता संग्राम में भी अक्षय प्रेरणा स्रोत बना रहा। आगे चलकर कालिदास और भास, अश्वघोष और माघ, श्रीहर्ष और बाण भट्ट हमारी सांस्कृतिक पहचान को रूप देते हैं। अश्वघोष ने ‘बुद्ध चरित’ में करुणा को दिव्यता का स्पर्श देकर यह बताया है कि मनुष्यता का सबसे बड़ा मूल्य इस बात में छिपा हुआ है कि हम नृशंसता को कितनी दूर तक ठेलकर हटा पाते हैं। क्या हम प्रतिशोध की भावना से ऊपर उठकर मानवीय दुर्बलताओं को अतिक्रमित कर पाते हैं या हार जाते हैं? कालिदास ने अपने नाटकों में सौन्दर्य के माध्यम से शिवत्व की प्रतिष्ठा की है। शकुंतला के निष्पाप सौन्दर्य ने दुनिया भर के कवियों और विद्वानों को प्रभावित किया। ‘रघुवंश’ में राजा दिलीप की गोसेवा आज भी परोपकार और सेवा का मानक मूल्य है। ‘कुमारसंभव’ में देवी पार्वती की साधना और तपश्चर्या भारतीय संस्कृति की मधुर भावना को तपस्या के रंग में, लेकिन, लौकिक प्रेम में सिक्त कर प्रस्तुत करती है, जहाँ शिव पार्वती का युगल अनंतकालीन दाम्पत्य प्रेम और गहन साहचर्य का प्रतीक बन जाता है।

हमारे महाकवियों ने भारत के भूगोल का जो वर्णन किया है, वह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, शिव और पार्वती के प्रतीक को एक साथ जोड़ देता है। हिमालय में शिव हैं, तो कन्याकुमारी में भगवती की तपस्या के चिह्न बिखरे हुए हैं। हिमालय की पुत्री शिव को प्राप्त करने के लिए कन्याकुमारी में आराधन कर भारत की सांस्कृतिक एकरूपता को दर्शा देती है। महाकवि अश्वघोष ने जिस करुणा को भगवान बुद्ध के जीवन में रचा है और मानव जीवन को विवेक और महाकरुणा के जो आधार दिए हैं, उसने युगों-युगों तक दुनिया को प्रभावित किया है। भारत की संस्कृति में ये तत्व इस प्रकार से हिल-मिल गए हैं कि इन्हें अलगाकर नहीं देखा जा सकता।

‘उत्तर रामचरित’ में भवभूति ने इसी करुणा को भगवान राम के जीवन में इस तरह सघनता से निरूपित किया है कि यह कहना पड़ा कि करुण रस ही एकमात्र रस है। सच बात यही है कि मानवीय करुणा और प्रेम को रचकर दिखाने की ताक़त के कारण ही भारत की संस्कृति अन्य संस्कृतियों से अलग खड़ी नज़र आती है। सातवीं सदी में बाण भट्ट ने ‘हर्षचरित’ में महाराज श्रीहर्ष के जीवन पर प्रकाश डाला है, जिसमें इक्ष्वाकु वंशी महाराज रघु की तरह दानवत्सलता श्रीहर्ष का स्वभाव बनकर प्रकट होती है।

इसी तरह मध्यकाल में निर्गुण संतों ने जिनमें नामदेव और कबीर बहुत प्रसिद्ध हैं, उन्होंने एक आन्दोलन ही चलाया, जो मानवता की मुक्ति का प्रेरक आन्दोलन बन गया। यह हमारे देश का मध्यकालीन पुनर्जागरण था, जिसे इस दृष्टि से देखने की ज़रूरत है। यदि हम मध्यकालीन संतों में जागरण की तेज़ लहर को और पूरे देश में फैल जाने वाले भक्ति आंदोलन को देखते हैं, तो हमें लगता है कि भारतीय साहित्य का विवेक युरोप से कतई पीछे नहीं है, बल्कि, कहीं आगे है। भक्ति के तल पर सारे जाति-पाँति के भेदों से अलग जाकर मनुष्यता की मुक्ति, जिनमें दलित और स्त्रियाँ प्रमुख हैं, इस आंदोलन को आधुनिक आंदोलन बनाता है।

आधुनिकता का प्रधान लक्षण है हाशिए के समाज का आगे आना, जिसमें वंचित और शोषित समाज का जागरण और स्त्रियों की मुक्ति का आग़ाज़ प्रमुख है। वह युरोप से बहुत पहले हमें भारत के मध्यकालीन इतिहास में देखने को मिलता है। गोरख, कबीर, नानक, दादू, पीपा, रैदास, मीरा, सहजो, दयाबाई, बाबरी साहिबा, गुलाल साहब जैसे संत कवियों ने निर्गुण साधना और रहस्यवाद का अनुपम स्वर पैदा किया, जो इस्लाम के निर्गुण निराकार से अधिक रुचिकर और ममतामय था। मध्यकाल में इस्लाम के मारफत, एक भिन्न तरह के एकेश्वरवाद और निर्गुण को प्रतिष्ठित किया जा रहा था। इसे ठीक-ठीक चुनौती अंधे कवि सूरदास ने ‘भ्रमरगीत’ में यह पूछकर दी थी - निर्गुण कौन देस को बासी? और इस्लाम के निर्गुण और एकेश्वरवाद को धूल चटा दी। फिर आते हैं महाकवि तुलसीदास, जिनका रामचरितमानस मानवीय मूल्यों की रचनात्मक मंजूषा ही बन गया। वह तो निर्गुण संतों से आगे बढ़कर इस संसार को अपने आराध्य की लीला भूमि को चुनते हैं और उनके जीवन को प्रेरक बनाकर प्रस्तुत करते हैं।

अकबर के समय में उन्होंने विष्णु के खंभे पर बैठने वाले सम्राट को रचनात्मक रूप से उत्तर दे दिया कि विष्णु का वास्तविक अवतार कौन है? अकबर फ़तेहपुर सीकरी में उस सहस्रफण खंभे के ऊपर बैठता था, जिससे पता चले कि वही प्रतीक रूप से भगवान विष्णु का अवतार है। लेकिन महाकवि तुलसीदास ने वास्तविक लीलाचारी भगवान राम को कविता में अवतरित करके दिखा दिया।

उस समय रहीम और रसखान में प्रेम और विवेक की सुरीली तान फूटी थी, जिसका प्रभाव हम अब तक महसूस करते हैं। रीतिकाल के कवियों ने मानव मन की श्रृंगार भावना को अत्यंत सहज ढंग से प्रस्तुत किया, क्योंकि ‘काम तत्व’ भी एक पुरुषार्थ है, जिसके बिना जीवन को पूर्णता नहीं मिलती। कविवर बिहारीलाल ने राजस्थानी नागर मिज़ाज को उसी रसभाषा में जीवंत किया, जिससे हमारी परम्परा रस का आखेट करती रहती है। वह वैदिक कवियों के समान ही जीवन में मधु विद्या को प्रतिष्ठित करना चाहती थी, जिससे श्रृंगार हमारे जीवन को अनुरंजित कर सके। बिहारी और मतिराम इसी तरह के सुंदर कवि हैं। उर्दू के प्रमुख कवियों ने जिनमें मीर और ग़ालिब प्रमुख हैं, उन्होंने प्रेम और विरह के अवसाद को फ़ारसी रंगत में प्रस्तुत कर भारतीय कविता के मिज़ाज को बहुत संवेदनशील बना दिया। अंतत: ये मानवीय चित्त की वृत्तियाँ ही तो हैं, जो शेरो़-शायरी की हज़ारों मुद्राओं में आकार लेती हैं।

बंगाल के रवीन्द्रनाथ की कविता का स्वर कबीर की रहस्यात्मकता, ग़ालिब के प्रेमावसाद और कालिदास की भारतीयता को एक साथ प्रस्तुत करता है। महाकवि रवीन्द्रनाथ द्वारा रचित राष्ट्रगान के सभी पाँच छंद मिलकर उस नए भारत की नींव रखते हैं, जिसकी लय और जिसका संगीत चिन्मय भारत का अमरगीत बन गया है। तमिल के सुब्रह्मण्यम भारती हों, गुजराती के उमाशंकर जोशी, मराठी के कुसुमाग्रज हों या तेलुगू के शेषेंद्र शर्मा या पंजाबी की अमृता प्रीतम, उड़िया के गोपीनाथ महांती हों या छायावाद के प्रसाद-पंत-निराला-महादेवी हों, अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता हों या निर्मल वर्मा, इनकी जड़ें संस्कृत साहित्य में गहरे धंसी हुई हैं। उन्होंने परम्परा को आत्मसात् कर भारतीय साहित्य का अमृत तत्व एकत्र किया है, जिसमें करुणा और प्रेम की ऊष्मा ही प्रधान ऊर्जा है, जो मनुष्यता को संभव बनाती है।

भारतीय साहित्य और भारतीय संस्कृति इस बिंदु पर एक हो जाते हैं। यदि भारत की संस्कृति की प्रमुख विशेषता अनेकता में एकता है, तो वह सबसे अधिक भारतवर्ष की भाषाओं के साहित्य में ही प्रकट हुआ है। भारत की संस्कृति में सर्वाधिक प्रतिष्ठा मानव के उस जीवन विवेक की हुई है, जिसमें प्रेयस्कर जीवन के ऊपर श्रेयस्कर चिंतन विराजता है। यह ठीक है कि हमें प्रिय लगने वाली जीवन सुविधाओं की तलाश रहती है, लेकिन, ईशोपनिषद में यह कहा गया है कि हमें संसार का उपभोग त्यागपूर्वक करना चाहिए। भारत की इस प्रधान जीवन-दृष्टि को अभिव्यक्त करने में हमारे देश की साहित्यिक मनीषा का विशिष्ट योगदान है। इस देश में जीवन विवेक की संहिता का निर्माण कवियों और मनीषियों ने किया है। यदि हम प्राचीन भारतीय साहित्य से लेकर मध्ययुगीन साहित्य और विभिन्न भाषाओं में प्रकट होने वाले आधुनिक भारतीय साहित्य पर दृष्चिपात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन विवेक की साहित्यिक परम्परा ने किस तरह भारत की जनता को उस लोकप्रवाही गुण से सम्पन्न किया है, जिससे भारत की संस्कृति का विशिष्ट निर्माण हुआ है।

सहायक संदर्भ :

1. India Unbound, Gurcharan Das, Penguin Books, New Delhi, 2002

2. Hinduism, Marcus Braybrooke, Jai o Publishing House, 2004

3. The Hindus, Wendy Doniger, Speaking Tiger Publishing, New Delhi, 2015

4. On Hinduism, Wendy Doniger, Aleph Book Company, New Delhi, 2013

5. India by Al Biruni, Ed. Qeyamuddin Ahmad, National Book Trust, 2015

6. India, a Civilisation of Difference, Alan Danielou, Inner Traditions, Rochester, Vermont, 2005

7. Indian Philosophy (Vol 1 & 2), S Radhakrishnan, Oxford, 2013

8. संस्कृति के चार अध्याय, रामधाारी सिंह दिनकर, उदयाचल प्रकाशन, पटना,1977

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