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रचनाः प्रो. खेमसिंह डहेरिया
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

वैश्वीकरण और भारत के बढ़ते प्रभाव के साथ हिंदी के प्रति विश्व के लोगों में रूचि बढ़ी है। दूसरे देशों के साथ बढ़ता प्रभाव भी इसका एक कारण है, हिंदी विश्व के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। विभिन्न देशों के 91 विश्वविद्यालयों में ‘हिंदी चेयर’ है।

वैश्विक हिंदी और भारतीय संस्कृति

- प्रो. खेमसिंह डहेरिया

भारत के अलावा नेपाल, फ़िजी, पाकिस्तान, त्रिनिदाद टोबैगो, बांग्लादेश, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस जैसे देशों में बड़ी संख्या में लोग हिंदी बोलते हैं। भारत में हिंदी और अंग्रेज़ी दो कार्यालयीन (ऑफीशियल) भाषाएँ हैं। भारत के कई राज्यों में हिंदी के साथ वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ भी बोली जाती हैं। नेपाल की कार्यालयीन भाषा तो नेपाली है पर यहाँ नेपाली के साथ मैथिली, भोजपुरी और हिंदी बोली जाती है। फ़िजी एक छोटा-सा देश है। यहाँ चार ऑफीशियल भाषाएँ हैं। हिंदी उनमें से एक है। नदरोगा भाषा भी यहाँ बोली जाती है। पाकिस्तान में अंग्रेज़ी और उर्दू को ऑफीशियल भाषाओं में शामिल किया गया। यहाँ सिंधी, पंजाबी, पास्तो बलूची और हिन्दिको भाषाएँ भी बोली जाती हैं।

थाइलैंड और टोबेगो में अंग्रेजी ऑफिशियल भाषा है, यहाँ पर स्पेनिश, फ़्रेंच, हिंदी और भोजपुरी भी बोली जाती है। बांग्लादेश की ऑफीशियल भाषा बांग्ला है, यहाँ अंग्रेज़ी के साथ हिंदी भी बोली जाती है। सिंगापुर में माले और अंग्रेज़ी यहाँ की ऑफीशियल भाषा है, यहाँ तमिल, मेंड्रेन के साथ हिंदी भी बोली जाती है। दक्षिण अफ़्रीका में अंग्रेज़ी और अफ़्रीकन यहाँ की कार्यालयीन भाषा है, यहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिंदी भी बोली जाती है। इसके अलावा इंग्लैंड, अमेरिका, मध्य एशिया में भी इसे बोलने और समझने वाले अच्छे खासे लोग हैं। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किये जा रहे हैं। यूनेस्को की सात भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है। वैश्वीकरण और भारत के बढ़ते प्रभाव के साथ हिंदी के प्रति विश्व के लोगों में रूचि बढ़ी है। दूसरे देशों के साथ बढ़ता प्रभाव भी इसका एक कारण है, हिंदी विश्व के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। विभिन्न देशों के 91 विश्वविद्यालयों में ‘हिंदी चेयर’ है।

विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्ति शाली भाषाओं में से एक है। 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में 42 करोड़ 60 लाख लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा बताया जो कुल जनसंख्या का 41.03 प्रतिशत है। भारत के बाहर हिंदी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 6,48,983, मॉरीशस में 6,85,170, दक्षिण अफ्रीका में 8,90,292, यमन में 2,32,760, युगांडा में 1,47,000, सिंगापुर में 5000, नेपाल में 8 लाख, जर्मनी में 30,000 हैं। न्यूज़ीलैंड में हिंदी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। कम्प्यूटर और इंटरनेट ने पिछले वर्षों में विश्व में सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कम्प्यूटर तथा कम्प्यूटर सदृश अन्य उपकरणों से दूर रहकर लोगों से जुड़ी नहीं रह सकती। हिंदी की इंटरनेट पर अच्छी उपस्थिति है। गूगल जैसे सर्च इंजन हिंदी को प्राथमिक भारतीय भाषा के रूप में पहचानते हैं। फ़रवरी 2018 के सर्वेक्षण के अनुसार इंटरनेट की दुनिया में हिंदी ने भारतीय उपभोक्ताओं के बीच अंग्रेज़ी को पछाड़ दिया है। यूथ 4 वर्क की इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने इस आशा को सही साबित किया है कि जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रसार छोटे शहरों की ओर बढ़ता जायेगा, हिंदी और भारतीय भाषाओं की दुनिया का विस्तार होता जाएगा।

इस समय हिंदी में सजाल (Websites), चिट्ठे (Blogs), विपत्र (email), गपशप (Chat), खोज (Web-search), सरल मोबाइल सन्देश (SMS) तथा अन्य हिंदी सामग्री उपलब्ध है। इस समय इन्टरनेट (अन्तरजाल) पर हिंदी में संगणन के संसाधनों की भी भरमार है। शब्दनगरी जैसी नयी सेवाओं का प्रयोग करके लोग अच्छे हिंदी साहित्य का लाभ अब इंटरनेट पर भी उठा सकते हैं। मुंबई में स्थित ‘बॉलीवुड’ हिंदी फ़िल्म उद्योग पर भारत के करोड़ों लोगों की धड़कन टिकी रहती हैं। विदेशों में 25 से अधिक पत्र – पत्रिकाएँ लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं।

भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडू कहते हैं कि हिंद की भाषाएँ बढे़ंगी, तब हिंदी आगे बढ़ेगी। भाषायी जनगणना के अनुसार भारत में मातृभाषाओं के रूप में 19 हज़ार 500 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। 121 भाषाएँ ऐसी हैं, जिनका प्रयोग करने वाले शायद 10-10 हज़ार के आसपास देशवासी हैं। खेदजनक है कि हमारे देश की 196 भाषाएँ आज संकटग्रस्त श्रेणी में हैं। हम उन्हें नष्ट होने से बचाने का प्रयास करें। इसका एकमेव मार्ग है कि हम उनका लगातार प्रयोग करें। महान भारतीय दण्डि ने कहा था कि भाषाओं का प्रकाश छिन जाने पर हम अंधी दुनिया में भटकते रह जाएँगे। भारत की कई जनजातीय भाषाएँ आज समाप्ति की कगार पर हैं। राज्यसभा सदस्यों के लिए एक प्रावधान किया गया है, ताकि वे सदन में संविधान की 8 वीं अनुसूची में दी गई 22 भाषाओं में से किसी भी भाषा में अपने विचार व्यक्त कर सकें । अनेक सदस्य अंग्रेज़ी के बजाय हिंदी में सहजता से बोलते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी दिशा में कदम बढ़ाकर हाल ही में अपने न्याय-निर्णय देशी भाषाओं में उपलब्ध कराने का संकल्प किया है।

वित्त मंत्रालय ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की भर्ती परीक्षाएँ अंग्रेज़ी और हिंदी के अलावा 13 क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से आयोजित कराने का निर्णय लिया है। रेलवे और डाक विभाग ने भी अपनी भर्ती परीक्षाएं राज्यों की राजभाषाओं के माध्यम से आयोजित कराना प्रारंभ किया है। विश्व की सर्वाधिक युवा जनसंख्या भारत की है। 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के युवाओं की संख्या 65 प्रतिशत है। हमें इस ऊर्जावान युवा पीढ़ी को उसकी मातृभाषा और बोलियों का अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रेरित करना होगा।’1 हिंदी के भविष्य को लेकर हम भले चिंता जताते हों, लेकिन सच्चाई यह है कि दुनिया में हिंदी बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2015 के आंकड़ों के अनुसार यह दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है। 2005 में दुनिया के 160 देशों में हिंदी बोलने वालों की अनुमानित संख्या 1,10,29,96,447 थी। उस समय चीन की मंदारिन भाषा बोलने वालों की संख्या इससे कुछ अधिक थी। लेकिन 2015 में दुनिया के सभी 206 देशों में करीब 1,30,00,00,000 (एक अरब तीस करोड़) लोग हिंदी बोल रहे हैं और अब हिंदी बोलने वालों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा हो चुकी है। नंबर एक के सिंहासन से मंदारिन को उतारा हिंदी ने, विश्व में 64 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी है, भारत में 78 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते हैं, 20 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा है हिंदी, 70 प्रतिशत चीनी ही मंदारिन बोलते हैं। 44 करोड़ लोगों की तीसरी या चौथी भाषा हिंदी है। विश्व में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाएँ संख्या (करोड़ में) हिंदी -130, मंदारिन-120, अंग्रेज़ी-90, स्पेनिश-51.8, अरबी-42.2, मलय/इंडोनेशियन-24.7, फ्रेंच-23.3, बांग्ला-22.4, पुर्तगी -22.1, रूसी-20.1, जर्मनी-14.1, यहाँ तक कि चीन ने अपने 10 लाख सैनिकों को भी हिंदी सिखा रखी है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हिंदी विश्व की प्रथम भाषा बन चुकी है। द्वितीय स्थान पर चीन की मंदारिन और तीसरे स्थान पर अंग्रेज़ी आती है।

हिंदी भाषा प्रशासनिक शैली अत्यधिक प्रयोजनमूलक तथा उपयोगी मानी जा सकती है। भारत के राजभाषा के पद पर आसीन होने के बाद हिंदी को प्रयुक्ति के अनेक दायित्वों का निर्वाह करना पड़ रहा है। इसी के साथ सरकारी कामकाज में उसका प्रयोग अनिवार्यतः होने के कारण उसमें प्रशासन से जुड़ी एक नयी पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण और प्रचलन हुआ। प्रशासनिक कामकाज से संबंधित वाक्य-रचना शब्द-प्रक्रिया तथा कार्यालयीन पद्धति के निर्वाह स्वरूप उसमें आई तटस्थता आदि इस शैली में दृष्टिगोचर होती है। सरकारी प्रशासन के काम-काज की भाषा प्रयुक्ति में भावुकता, कोमलता, मुहावरे, कहावतें तथा अन्य कौशल आदि का लोप होकर उसमें निर्वैयक्तिकता, तटस्थता, नीरसता, तथ्यात्मकता आदि का प्रस्फुटन हुआ है। प्रशासनिक भाषा-शैली में उत्तमपुरुष की अपेक्षा अन्यपुरुष सम्बोधनों और लेखन प्रणाली का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में किया जाता है।

इसी के साथ, प्रशासनिक भाषा-शैली में कार्यालयीन परम्परा एवं कार्य-प्रणाली से संबद्ध तकनीकी शब्दावली तथा वाक्य विन्यास का बंधा बँधाया ढाँचा अपाहिज होता रहता है। प्रशासनिक हिंदी के मुख्य प्रयोग के रूप में केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में कानूनी प्रावधानों के अनुपालन के अनुसरण में प्रयुक्त हिंदी का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। सरकारी कामकाज के विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, संस्थानों, बैंकों तथा अन्य सम्बन्धित कार्यालयों की व्याप्ति को दृष्टिगत रखते हुए आवश्यक है कि यह पहले निर्धारित कर लिया जाए कि केन्द्रीय सरकार के कार्यालय के अन्तर्गत कौन से कार्यालय आयेंगे।

सरकारी कार्यालय तथा सरकार के अधीन नियम, संस्थान, कम्पनी, प्रतिष्ठान, बैंक आदि सभी में टिप्पण तथा मसौदा लेखन का प्रयोग आमतौर पर किया जाता है। किन्तु सरकार के मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों में टिप्पण तथा मसौदा लेखन को अत्यधिक अहमियत दी जाती है, क्योंकि इन सरकारी कार्यालयों में, फ़ाइलों का प्रचलन अधिक मात्रा में है। कार्यालय में पत्र आने के बाद उसके निपटान तक उसे एक विशिष्ट पद्धति के अनुसार विशिष्ट प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। यथा आवतियों पर कार्यवाही मंत्रालय के नाम आये हुए सभी पत्रादि, जिनको कार्यालय की भाषा में आवतियाँ कहते हैं, मंत्रालय की केन्द्रीय रजिस्ट्री में आते हैं और तब वे अलग होकर अनुभागों में बाँट दिये जाते हैं। जहाँ तक हो सके रजिस्ट्री कहीं ऐसी जगह होती है, जहाँ से वह सभी अनुभागों का काम समान रूप से जल्दी-जल्दी और अच्छी तरह कर सके।

देश की 130 करोड़ जनता का लगभग 70 प्रतिशत भाग गाँवों में निवास करता है। शहरी आबादी का भी प्रायः शत प्रतिशत भाग अंग्रेज़ी का प्रयोग नहीं करता। कुल 2 प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। कायदे से अंग्रेज़ी राज्य इस देश में 1857 की क्रांति के बाद स्थापित हुआ और 1947 में अंग्रेज़ विदा हो गये। इसके पहले ईस्ट-इंडिया कंपनी ने छुट-पुट रूप में कई राज्यों पर राज्य किया। अगर दोनों की अवधि मिला भी दी जाए, तो लगभग डेढ़-दो सौ सालों का राज्य अंग्रेज़ों का माना जाना चाहिए। जिसमें संपूर्ण राज्य-व्यवस्था उनके हाथों लगभग 90 साल रही, और हमें आज़ाद हुए 68 साल हो गये, किन्तु दुर्भाग्य है कि हम 90 साल की जमाई हुई जड़ें, जो केवल 02 प्रतिशत जनता पर प्रभावी हैं, उनको आज तक हिला नहीं पा रहे हैं। इसका कारण भाषा नहीं, वह गुलामी की मानसिकता है, जिसने नये अंग्रेज़ और अंग्रेज़ियत पैदा कर दी है। इसी मानसिक गुलामी का इससे बड़ा क्या सबूत हो सकता है कि भारत वर्ष के एक गरीब का फ़ैसला अदालतों में होता है, न्यायाधीश और वकील, जिरह सुनते और करते हैं, किन्तु क्या कहा जा रहा है, यह उस गरीब को नहीं मालूम। यहाँ तक कि यदि उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई जाती है तो यदि सब लोग हँसते हैं तो वह गरीब भी हँस देता है। इन हँसने वाले सूरमाओं से कहिये ज़रा अंग्रेज़ी में हँसकर दिखाओ या अंग्रेज़ी में रोकर दिखाओ तो बगलें झाँकने लगेंगे, क्योंकि हँसना-रोना आदि बातें किसी भाषा का विषय नहीं हैं, और जो भाषा हमारी भाव संवेदनाओं को न जगा सके, वह हमारे किस काम की। यह संवेदनाएँ तो केवल अपनी भाषा और सबसे ज्यादा मातृभाषा ही जगा सकती है। हिंदी इस देश की मातृभाषा ही नहीं, राष्ट्रभाषा ही नहीं, प्राणभाषा है। हिंदी में इस राष्ट्र के प्राण बसते हैं, धड़कते हैं।

अंग्रेज़ी को विश्वस्तरीय भाषा कहने वालों से पूछिये कि अपना ट्रेक्टर, अपना साबुन, शराब, बोतल बंद दानापानी और शीतल पेय इस देश की भाषा में गा-बजाकर क्यों बेचे जाते हैं। इसका सीधा-सा कारण यह है कि वह बेचने वाले बनिये जानते हैं कि इस देश की भाषा में यहाँ के नागरिकों की संवेदनाएँ जगाकर ही अपना माल बेचा जा सकता है। इस दुकानदारी में भाषा आड़े नहीं आती, लेकिन दुर्भाग्य है कि गाँव की गोरी का अभिनय करने वाली और उन भोले-भाले गरीब लोगों के पैसों पर इठलाने वाली छोरी जब पत्रकारों या टी.वी. चैनल वालों को इंटरव्यू देती है, तो अंग्रेज़ी झाड़ने लगती है, तब उसे हिंदी में बोलना लज्जाजनक लगता है। यह है गुलामी की मानसिकता। जो उनके दोहरे चरित्र और दोगले व्यवहार को प्रकट कर जाता है।

दुनिया की बहुत बड़ी आबादी वाले चीन और भारत जैसे राष्ट्रों में अंग्रेज़ी का प्रतिशत नहीं के बराबर है, फिर हम किस बूते पर अंग्रेज़ी को विश्वभाषा मानने की बात करते हैं। रसिया हो या जर्मनी, फ़्रांस हो या इटली, दुनिया के सभी मुल्क अपने-अपने देश की भाषाओं पर गर्व करते हैं और वह तब आश्चर्यचकित रह जाते हैं, जब यहाँ से जाने वाला व्यक्ति न तो उसकी भाषा में बात करता है न भारत की भाषा में बात करता है, बल्कि वह जिसका गुलाम रहा है, उस देश की भाषा में बात करता है। राष्ट्रीय हिंदी परिषद्, मेरठ की पत्रिका के जुलाई 1994 के अंक में “हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बन सकती है” लेख छपा है। संसार में हिंदी बोलने वाले तथा समझने वालों की जितनी संख्या है, उसके अनुसार हिंदी निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने योग्य हैं, किन्तु इस दिशा में किए जाने वाले प्रयत्न तब तक फलीभूत नहीं होंगे, जब तक भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी का समुचित प्रयोग नहीं होगा। अभी भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही अनेक कार्यालयों में काफ़ी काम अंग्रेज़ी में होता है तथा हमारे जो राजनीतिक नेता विदेश जाते हैं अथवा विदेशों में स्थित जो भारतीय राजदूतावास हैं, वे सब वहाँ हिंदी का नहीं अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। इस कारण विदेशी लोग अनेक बार हमसे पूछते हैं कि क्या हमारी अपनी कोई भाषा नहीं है। इस स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को कामकाज की भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हम तब तक उपहास के पात्र बने रहेंगे, जब तक स्वयं अपने देश में हिंदी का प्रयोग बढ़ाने का गंभीर प्रयत्न न करें। जब भारत में हमारे समस्त काम अथवा अधिकांश काम हिंदी में होंगे, तब हमारी इस आवाज़ में बल आएगा कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की भी भाषा होनी चाहिए।

दुनिया की विविध भाषाओं के और यहाँ तक कि अंग्रेज़ी के चैनलों को भी झक-मारकर हिंदी में अपना रूपान्तरण करना पड़ा है, क्योंकि वह उपभोक्ता मंडी का सच जान गये हैं। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में भारत में उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। इसके परिणामस्वरूप अनेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में आईं, तो हिंदी के लिए एक खतरा दिखाई दिया था, क्योंकि वे अपने साथ अंग्रेज़ी और सिर्फ अंग्रेज़ी का पिटारा लेकर आई थीं। मीडिया महारथी रूपर्ट मरडोक स्टार चैनल लेकर आए। ज़ाहिर है कि वह अंग्रेज़ी में बड़ी धूमधाम से शुरू हुआ था। इसी तर्ज पर सोनी, डिस्कवरी, कार्टून नेटवर्क, एनिमल वर्ल्ड आदि भी अंग्रेज़ी में अपने कार्यक्रम लेकर भारत में आए। मगर आज इसकी क्या स्थिति है? इन सबको विवश होकर हिंदी की ओर मुड़ना पड़ा, क्योंकि इन्हें अपनी दर्शक संख्या बढ़ानी थी, अपना व्यापार, अपना लाभ बढ़ना था। आज टी.वी. चैनलों एवं मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफ़े की भाषा है। कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत हिंदी माध्यम में है। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की लोकप्रियता ने मीडिया के क्षेत्र में हिंदी के झंडे गाड़ दिये, कमाई तथा प्रसिद्धि के अनेक कीर्तिमान भंग कर दिए तथा आने वाले समय में हिंदी के सुखद भविष्य के सपने जगा दिये हैं । आज सभी चैनल तथा फ़िल्म निर्माता अंग्रेज़ी कार्यक्रमों और फ़िल्मों को हिंदी में ‘डब’ करके प्रस्तुत करने लगे हैं, क्यों? क्योंकि हिंदी उनके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी सिद्ध हो रही है। आज भारत में सर्वाधिक पत्र-पत्रिकाएँ तथा उनके पाठक हिंदी में हैं। सर्वाधिक फ़िल्में हिंदी में बनती हैं, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य की सर्वाधिक पुस्तकें हिंदी में लिखी और छापी जा रही हैं। कम्प्यूटर और इंटरनेट के क्षेत्र में भी हिंदी की स्थिति निरंतर बेहतर हो रही है।

हिंदी संस्कारित भाषा है। अंग्रेज़ी का यू, हिंदी आप का अर्थ नहीं दे सकता। हिंदी वैज्ञानिक भाषा है, जैसी बोली जाती है, वैसी लिखी और पढ़ी जाती है। हिंदी का नौ दो ग्यारह होना, अंग्रेज़ी में नाईन प्लस टू से प्रकट नहीं हो सकता अर्थात् अंग्रेज़ी रसहीन भाषा है, शुष्क भाषा है। वह कैसी भी लिखी, बोली और समझी जाती है।

हिंदी राष्ट्र की राजभाषा है। अतः आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा जो कार्यक्रम हिंदी में प्रसारित किये जाते हैं, इसका लाभ हिंदी भाषा ही नहीं, अपितु अन्य लोग भी आसानी से उठा सकते हैं, क्योंकि आजकल शहरों में नहीं, गाँव में रेडियो और टेलीविजन का महत्त्व बढ़ा है। दिल्ली दूरदर्शन-1 और दिल्ली दूरदर्शन-2 द्वारा जो प्रसारण किया जाता है, वह हिंदी में ही होती है, जिससे ग्रामीणों को बहुत लाभ मिलता है, उनमें साहित्यिक अभिरूचि पैदा होती है। अतः यहाँ हिंदी भाषा की महत्ता महत्वपूर्ण हो जाती है। स्वतंत्रता से पूर्व 5-6 हज़ार पारिभाषिक शब्द थे, किन्तु अब उनकी संख्या एक लाख से ऊपर है और दिनों-दिन उनमें वृद्धि होती जा रही है। हिंदी शब्द समूह अनेक प्रभावों को ग्रहण करते हुए तथा नये शब्दों से समृद्ध होते हुए अधिक समृद्ध होता जा रहा है।

हिंदी राजभाषा से राष्ट्रभाषा और अब विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। ताजा सर्वेक्षण में हिंदी विश्व की पहली भाषा है। वैश्वीकरण के दौर की हिंदी का जानने वाले 982 मिलियन हैं, जबकि चीनी जानने वाले 874 मिलियन हैं। यही हाल बाज़ारीकरण का है, रूपर्ट मरडोक सोनी जैसे चैनल अंग्रेज़ी में लाये, परन्तु हिंदी की माँग और बाज़ार को देखते हुए, चैनल को हिंदी में परिवर्तित किया। हिंदी की शब्द संख्या 2.50 लाख है, जबकि अंग्रेज़ी के मूल शब्द 10,000 हैं। समय ठीक है, हिंदी अपनी गति से आगे बढ़ रही है, अपने-अपने स्तर से हिंदी भाषा के उन्नयन के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। वैश्विक स्तर पर 73 राष्ट्रों के 150 विश्वविद्यालयों में हिंदी के अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान की सुविधा उपलब्ध है। अमेरिका के 38, रूस के 07, जर्मनी के 17, जापान के 02, श्रीलंका के 03 विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन हो रहा है। चीन के बीजिंग विश्वविद्यालय तथा आकाशवाणी में हिंदी का बोलबाला है। पाकिस्तान के पंजाब व करांची विश्वविद्यालय में हिंदी पठन की व्यवस्था है। जापान के क्योतो और ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। वहाँ से ‘ज्वालामुखी’, सर्वोदय तथा ‘जापान भारती‘ पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। यूरोप और अमेरिका में भी हिंदी कार्य प्रशंसनीय स्तर पर है। लन्दन, केम्ब्रिज व यार्क विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग इसके प्रमाण हैं। बी.बी.सी. द्वारा निरंतर ‘हिंदी ’ का प्रसारण हो रहा है। फ़्रांस, इटली, स्वीडन, आस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, हालैंड, पोलैंड, चैक गणराज्य, जर्मन, रोमानिया, बल्गारिया, हंगरी आदि राष्ट्र भी हिंदी के संदर्भ में कदापि पीछे नहीं हैं।

तुर्की, ईराक, मिश्र, लीबिया, संयुक्त अरब अमीरात, दुबई, अफ़गानिस्तान, उज़्बेकिस्तान तथा मध्य एशिया के राष्ट्रों में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार है। इस प्रकार हिंदी आज विश्व के कोने-कोने तक पहुँच चुकी है। अंग्रेज़ी, रूसी, स्पेनिश, फ़्रेंच, अरबी एवं चीनी को संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। हिंदी भाषा अब भी वह स्थान पाने में संघर्षरत है। लेकिन आज हिंदी ने अपनी क्षमता के बल पर वैश्विक स्तर पर विश्वभाषा बनने का सम्मान पाया है, इसमें कदापि संदेह नहीं है। हिंदी को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केन्द्रीय भूमिका रही है। जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई हैं। अनन्त कुमार सिंह कहते हैं कि ‘हिंदी की खड़ी-बोली के प्रथम रचनाकार के रूप में ख्यात अमीर खुसरो, उनका लेखन तथा उनका बहुआयामी व्यक्तित्व एक मील का पत्थर है। हिंदी खड़ी बोली को जन्म देने, उसे संवारने, सरल बनाने और गुरू परंपरा की गरिमा को और भी गहराई प्रदान करने में उनका नाम लिखा जा सकता है।

कबीर, तुलसी, जायसी, रैदास, प्रेमचन्द, टैगोर, निराला सरीखे लोग साहित्य और समाज की धरोहर हैं। हिंदी भाषा को समृद्ध करने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है।’3 डॉ. साकेत सहाय का कहना है कि - ‘हिंदी की पूरे देश में व्यापक स्वीकार्यता के कारण इसके स्वरूप में काफ़ी भाषागत बदलाव आए हैं। स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली यह भाषा आज देश की सांस्कृतिक व राजनैतिक एकता को भी मज़बूत कर रही है। हिंदी की सम्पर्क भाषा की भूमिका जहाँ हमें स्थानीयता और जातीयता से परे लेकर जाती है, वहीं इसका भाषायी भारतीय समय में व्याप्त क्षेत्रीय, जातीय व भाषायी दुराग्रह को समाप्त करने में भी मददगार सिद्ध हो रहा है। विविधता भरे इस देश में सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एकता लाने में हिंदी की भूमिका जगजाहिर है।’4

अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि हिंदी के विकास तथा उसकी प्रगति के विषय में प्रबुद्धजनों को तथा सामान्य जनता को अधिकाधिक जानकारी कराई जाए, जो सुविधाएँ हिंदी में उपलब्ध हैं, उनका उपयोग किया जाए, हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के लिए समन्वित प्रयास किया जाए। हिंदी की प्रगति के मार्ग में जो कठिनाइयाँ हैं, उनका विश्लेषण किया जाए और समस्याओं के समाधान के लिए व्यावहारिक हल खोजे जाएँ। इसके लिए अपने क्षेत्र के महाविद्यालयों में हिंदी प्रेमी प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के सहयोग से गोष्ठियाँ आयोजित करना उपयोगी होगा। इसी प्रकार हिंदी प्रेमी उद्योगपतियों, व्यापारियों आदि के सहयोग से उनकी भी गोष्ठी आयोजित कराना उपयोगी होगा।

संदर्भ-ग्रंथ

1. एम. वेंकैया नायडू, उपराष्ट्रपति, भारत, अनुवाद-रवीन्द्र देवघरे, दैनिक भास्कर, जबलपुर, 10 जनवरी 2020, विश्व हिंदी सम्मेलन दिवस पर विशेष, पृ. 04.

2. ओमप्रकाश तिवारी, दैनिक जागरण, वर्ष 42, अंक 265, गोरखपुर, मंगलवार, 10 जनवरी 2017, नगर संस्करण पृ. 18.

3. राजभाषा भारती, वर्ष -39, अंक 150, जनवरी-मार्च 2017, भारत सरकार गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग पृ. 15.

4. वही, पृ. 46

विश्व हिंदी पत्रिका
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