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रचनाः डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

भारतीय आप्रवासन का इतिहास कम से कम पंद्रह सौ वर्ष पुराना है और इस भारतीय आप्रवासन को हम तीन प्रमुख चरणों में बाँट कर देख सकते हैं। भारतीय आप्रवासन के पहले चरण का प्रारम्भ उस समय से मानना चाहिए जब राजस्थान, गुजरात तथा पंजाब प्रांत के बंजारे अपनी यायावरी प्रवृत्ति के कारण भारत छोड़कर बाहर निकले और यूरोप, अमेरिका होते हुए वे सारे विश्व में फैल गए।

प्रवासी हिंदी : इतिहास, स्वरूप एवं समस्याएँ

- डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा

भारतीय जहाँ-जहाँ भी गए, अपने साथ अपनी संस्कृति, अपना साहित्य और अपनी भाषा ले गए। वे जिस देश में भी रहे, वहाँ की भाषा तो उन्होंने सीख ली, किंतु अपनी मूल भाषा को वे भूले नहीं, अपितु उसे अमूल्य निधि के समान सुरक्षित रखते हुए उसके सम्मान तथा उसकी सुरक्षा के प्रति हमेशा सजग रहे। वे यह मानते रहे कि अपनी संस्कृति को बचाए रखने का मूलमंत्र अपनी भाषा की सुरक्षा तथा उसका सम्मान है। मॉरीशस के प्रतिष्ठित साहित्यकार अभिमन्यु अनत की अपनी भाषा के प्रति प्रतिबद्धता देखिये -

“छीनने नहीं दूँगा, तुम्हें लेकिन

अपनी पहचान, अपनी भाषा”

फ़िजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, गयाना, दक्षिण अफ़्रीका जैसे देशों में हिंदी भारतवंशियों के मध्य आज भी मातृभाषा के रूप में बोली जाती है तथा उसे वहाँ सम्मानित स्थान प्राप्त है, पर इनमें से कई देशों में हिंदी लुप्त होने के कगार पर है, जिसकी सुरक्षा के लिए आज प्रयत्न आवश्यक है ।1

भाषा की प्रतिष्ठा उसके बोलने वालों की सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है। भारतीय भी विश्व के अनेक देशों में आजीविका की खोज में सुनहले भविष्य का सपना लिए हुए यायावर के रूप में, तो कहीं मज़दूर के रूप में गए थे, किंतु अपने परिश्रम, लगन तथा ईमानदारी से वे हर देश में सुशिक्षित, सुप्रतिष्ठित तथा सम्मानित नागरिक बन गए। उनकी उन्नत सामाजिक स्थिति के कारण ही उनकी भाषा भी सम्मानित भाषा बनी।

भारतीय आप्रवासन और प्रवासी भारतीय समाज

भारतीय आप्रवासन का इतिहास कम से कम पंद्रह सौ वर्ष पुराना है और इस भारतीय आप्रवासन को हम तीन प्रमुख चरणों में बाँट कर देख सकते हैं। भारतीय आप्रवासन के पहले चरण का प्रारम्भ उस समय से मानना चाहिए जब राजस्थान, गुजरात तथा पंजाब प्रांत के बंजारे अपनी यायावरी प्रवृत्ति के कारण भारत छोड़कर बाहर निकले और यूरोप, अमेरिका होते हुए वे सारे विश्व में फैल गए। कहीं ये रोमा कहलाये, कहीं ये सिगनी कहलाये, तो कहीं इन्हें जिप्सी नाम दिया गया। इन्हें नाचना गाना प्रिय था, अपने समूहों में रहते थे, घूमते रहते थे और जहाँ मन किया वहीं डेरा डाल लिया और रम गए। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें घुमन्तू नाम दिया। भारत में ये घुमन्तू बंजारे, बडगूजर सिकलीगर, जात, सिन्धी पशुपालक समुदाय तथा विश्वकर्मा वर्ग के थे। इनकी भाषा रोमानी है, जो हिंदी की शब्द सम्पदा तथा हिंदी की व्याकरणिक संरचना वाली है और राजस्थानी हिंदी के ग्रामीण रूप से बहुत मिलती है, जिसमें मराठी, गुजराती तथा कश्मीरी आदि भारतीय भाषाओं के भी बहुत से शब्द आ गए हैं।

भारतीय आप्रवासन का दूसरा चरण 19वीं शती के पूर्वार्ध से प्रारम्भ होकर 20वीं शती के उत्तरार्ध तक का समझना चाहिए। यह वह समय है, जब ब्रिटिश और डच आदि उपनिवेशों में मज़दूरी करने के लिए भारतीयों को गिरमिट प्रथा के अंतर्गत बहला फुसलाकर और लालच देकर विदेश भेजा गया। इन प्रवासी भारतीयों का बड़ा दल सबसे पहले मॉरीशस (1834 ई.) फिर ट्रिनिडाड (1845 ई.) दक्षिण अफ़्रीका (1860 ई.), गयाना (1870 ई.), सूरीनाम (1873 ई.) तथा फ़िजी (1879 ई.) समुद्री जहाज़ से पहुँचा था। इन देशों को जाने वाले भारतीय सामान्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार के थे। वे अवधी तथा भोजपुरी बोलते थे। कुछ भारतीय खड़ी बोली का भी प्रयोग करते थे। अन्य प्रदेशों से जाने वाले भारतीय संख्या में इतने कम थे कि उनके बीच पारस्परिक व्यवहार की संपर्क भाषा अवधी और भोजपुरी ही रही, जिनमें कुछ अन्य भाषाओं के शब्दों का भी समुद्री यात्रा के दौरान समावेश हो गया। विदेशी भूमि पर कदम रखने के बाद वहाँ के मूल निवासियों तथा अंग्रेज़ अफ़सरों आदि से जब उनका संपर्क हुआ, तो वहाँ के कुछ शब्द भी उनकी हिंदी में प्रायः तद्भव रूप में सम्मिलित हो गए। धीरे-धीरे उनकी शुद्ध अवधी या शुद्ध भोजपुरी का रूप बदलने लगा और एक नई भाषिक शैली का विकास हुआ। इसी प्रकार अनेक भाषिक शैलियाँ पनपीं, जिनके नए नामकरण भी कर दिए गए, क्योंकि वे भारत में बोली जाने वाली हिंदी से बहुत भिन्न थीं तथा इनमें स्थानीय भाषा का प्रभाव भी पर्याप्त मात्रा में दिखाई पड़ता था। फ़िजी में बोली जाने वाली हिंदी को वहाँ के प्रवासी भारतीय फ़िजीबात कहते हैं, सूरीनाम की हिंदी को सरनामी, सरनामी हिन्दुस्तानी या सरनामी हिंदी कहा जाता है तथा दक्षिण अफ़्रीका की हिंदी को नेटाली। इन शैलियों का व्यवहार प्रवासी भारतीय अधिकांशतः घर में तथा अनौपचारिक बातचीत में करते हैं। इसमें साहित्यिक रचना बहुत कम होती है, पर साहित्यिक रचनाओं में इनका प्रभाव निश्चय ही देखा जा सकता है। चूँकि इन नई भाषिक शैलियों में साहित्य लेखन बहुत कम होता है, इसलिए इनका स्वरूप वहाँ के हिंदी लोकगीतों में या बोलचाल की भाषा में ही देखने को मिलेगा।

भारतीय आप्रवासन के तीसरे चरण का प्रारंभ भारत की स्वाधीनता के बाद से अर्थात् 1947 के बाद से समझना चाहिए। स्वेच्छा से अपने देश को छोड़कर उच्च शिक्षा के निमित्त या बड़े और प्रतिष्ठित पदों पर काम करने के निमित्त या अपने व्यापार को व्यापक बनाने के लिए भारतीय विदेश गए। विदेश में बसे ये भारतीय नियमित रूप से भारत आते जाते रहते हैं। आज विदेश में इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी है। अपने नए अपनाए देश में आर्थिक दृष्टि से संपन्न होते हुए भी वहाँ की संस्कृति में वे घुलमिल नहीं पाए। वे उस देश में धन कमाने आये एक व्यापारी के रूप में देखे जाते हैं। प्रतिष्ठित प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी2 अपने उपन्यास 'हवन' में उनकी स्थिति बताते हुए बड़े खुले शब्दों में कहती हैं -

“हर हिन्दुस्तानी यहाँ एक व्यापारी है, अमेरिका के एक बड़े बाज़ार में हिन्दुस्तानी अपनी प्रतिभा, ज्ञान, कौशल और अनुभव को लेकर आता है और खुद को चढ़ा देता नीलामी पर। अच्छा दाम लग जाए, तो क्या खूब-बढ़िया सी नौकरी, सुन्दर सा घर, नमकीन सी बीवी और बलार्ड गर्ल फ़्रेंड सबका सौदा हो जाता है। न बढ़िया दाम लगे, तो भी बैरा या दुकानदार की नौकरी ही सही। ले देकर किसी को यह सब घाटे का सौदा नहीं लगता।2

प्रवासी भारतीय और हिंदी

प्रवासी भारतीयों ने जिस दिन विदेशी भूमि पर पदार्पण किया उसी दिन से उन देशों में हिंदी का वृक्षारोपण हुआ समझना चाहिए। व्यक्ति और उसकी भाषा दोनों सर्वदा साथ चलते हैं।

विदेश में बसे हुए प्रवासी भारतीयों में सबसे बड़ी संख्या हिंदी भाषी भारतीयों की ही रही है। इसका कारण भी यही है कि हिंदी भारत में सबसे बड़े भूभाग की भाषा है। देश का आधा भूभाग हिंदी का मातृभाषा-भाषी क्षेत्र है। देश के 11 प्रदेशों की मातृभाषा हिंदी है। देश की दो तिहाई जनता हिंदी का मातृभाषा के रूप में प्रयोग करती है, पर हिंदी का यह प्रयोग मानक हिंदी का नहीं, यह प्रयोग हिंदी की 17 प्रधान उपभाषाओं का है, इसलिए जो भारतीय आप्रवासन के द्वितीय चरण में विदेश (मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, फ़िजी, दक्षिण अफ़्रीका देशों में) गिरमिट प्रथा के अंतर्गत गए, वे अधिकांशतः हिंदी पट्टी के थे और हिंदी की किसी न किसी उपभाषा के बोलने वाले थे। यही कारण है कि अपने-अपने समुदायों में वे अपनी उपभाषा या बोली का प्रयोग सामान्यतः करते हैं। बड़े बहु उपभाषा-भाषी समुदाय में खड़ी बोली या मानक हिंदी-परिनिष्ठित हिंदी का प्रयोग करते हैं, क्योंकि वह सर्वाधिक बोधगम्य भाषा माध्यम है।

भवानी दयाल सन्यासी3 ने अपनी 'प्रवासी की आत्मकथा में' दक्षिण अफ़्रीका में विविध भारतीय भाषाओं के बोलने वाले, जिनमें दक्षिण भारत के तमिल, तेलुगु, मलयालम आदि भाषाओं के बोलने वाले प्रवासी भारतीय संख्या में बहुत थे और हिंदी भाषी कम, पर उन सबके बीच हिंदी ही माध्यम भाषा कैसे बनी, इसका बड़ा जीवंत विवरण प्रस्तुत किया है।

प्रवासी हिंदी और मानक हिंदी-भाषा द्वैत की स्थिति

फ़िजी, मॉरीशस, सूरीनाम, दक्षिण अफ़्रीका सभी देशों में हिंदी के सन्दर्भ में भाषा द्वैत की स्थिति दिखेगी। प्रवासी हिंदी प्रवासियों की बोलचाल की भाषा है और प्रवासी भारतीय समाज में सामान्यतः उसी बोलचाल के रूप का प्रयोग करते हैं, पर औपचारिक अवसरों पर प्रवासी भारतीय मानक हिंदी के प्रयोग का प्रयत्न करते हैं।

प्रवासी भारतीयों ने सभी देशों में अपनी भाषा को टूटी-फूटी, अव्याकरणिक और अइली-गइली आदि नाम दिए और मानक हिंदी की तुलना में अपनी बोलचाल की भाषा को महत्त्व नहीं दिया, पर बोलचाल की भाषा प्रवासी भारतीयों के मध्य वही रही, क्योंकि वह उनकी अपनी भाषा थी, उसका ही वे परिवार में प्रयोग करते हैं, पर औपचारिक अवसरों पर वे मानक हिंदी या खड़ी बोली के प्रयोग की कोशिश करते हैं। वे स्पष्टतः यह भी कहते हैं कि उनकी अपनी मातृभाषा वह हिंदी है, जो उनके यहाँ विकसित हुई है न कि मानक हिंदी। मानक हिंदी भारत की हिंदी है।

प्रवासी भारतीयों की दृष्टि में मानक हिंदी या शुद्ध हिंदी भारत में बोली जाने वाली परिनिष्ठित खड़ी बोली है। प्रवासी भारतीय इसी मानक हिंदी को सीखना चाहते हैं। वहाँ मानक हिंदी में ही समाचार-पत्र छपते हैं, रेडियो तथा दूरदर्शन में भी इसी मानक हिंदी का प्रयोग होता है और सामाजिक अवसरों पर भाषण आदि में भी मानक हिंदी को ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। विद्यालयों में भी मानक हिंदी ही सिखाई जाती है। यही कारण है कि बोलचाल की हिंदी पर भाषा की दृष्टि से प्रवासी भारतीयों ने कोई विशेष अध्ययन-अनुसंधान की बात नहीं सोची।

विदेशी विद्वानों ने प्रवासी भारतीयों के मध्य प्रचलित हिंदी की नई शैलियों के महत्त्व को समझा, क्योंकि उनके निकट आने का, उनसे घुलने-मिलने का सबसे सहज तरीका उनकी अपनी भाषा को समझना तथा उस पर अधिकार प्राप्त कर लेना था। यही कारण है कि विदेशी विद्वानों ने प्रवासी भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी की विविध भाषिक शैलियों पर विविध दृष्टियों से कार्य किया, इसका व्याकरण तैयार किया, अंग्रेज़ी-हिंदी द्विभाषी कोश तैयार किए और उनके महत्त्व को आंका।

विभिन्न देशों में बसे हुए भारतीयों के साथ हिंदी वटवृक्ष के समान विश्व में फैलती गई और उसके अनेक रूप हो गए। 4 अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूपों में वह भारतीयों की संपर्क भाषा बनी। भारतीयों ने उसकी सुरक्षा, संरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए तन-मन-धन अर्पित भी किया।

विदेशों में प्रचलित हिंदी के विविध भाषिक रूप निम्नलिखित हैं -

फ़िजी हिंदी / फ़िजीबात

फ़िजी में भारतीयों के मध्य बोली जाने वाली हिंदी फ़िजीबात या फ़िजी हिंदी कही जाती है।5 अधिक समय नहीं हुआ, जब फ़िजी में बसे भारतीय मूल के लोगों की संख्या देश की आधी जनसंख्या के बराबर थी। सभी भारतीयों के मध्य फ़िजी हिंदी आपसी व्यवहार की भाषा है। फ़िजी हिंदी सम्पूर्ण देश में भारतीयों के मध्य तो बोली और समझी जाती ही है, वहाँ के मूल निवासी काईबीती भी फ़िजी हिंदी बोलते और समझते हैं।

फ़िजी में हिंदी के दो रूप देखने को मिलेंगे। घर पर तथा अनौपचारिक अवसरों पर एक भारतीय जिस हिंदी का व्यवहार करता है, उस हिंदी का विकास उसके पूर्वजों द्वारा फ़िजी में हुआ। यह हिंदी का सहज बोलचाल का रूप है। औपचारिक अवसरों पर जिस हिंदी का प्रयोग एक भारतीय करना चाहता है वह हिंदी का परिनिष्ठित रूप है तथा इसको वह भारत की हिंदी कहता है। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा साहित्यिक मंच पर एक भारतीय इस परिष्कृत हिंदी का प्रयोग करता है और अपनी बोलचाल की हिंदी को इस परिष्कृत हिंदी की तुलना में अपरिष्कृत, अशुद्ध तथा टूटी-फूटी भाषा भी कहता है।

आज का प्रवासी भारतीय बोलचाल की हिंदी के महत्त्व को पहचानता है, अपनी बोलचाल में इसी हिंदी का प्रयोग करता है। उसे यह लगता है कि परिनिष्ठित हिंदी उसे सीखनी तो चाहिए, किंतु उसकी अपनी जो हिंदी है, जो विदेशी परिवेश में उसके अपने पूर्वजों द्वारा विकसित की गई है, वही उसकी भावाभिव्यक्ति का सहज तथा प्रभावशाली माध्यम बन सकती है।

फ़िजी हिंदी पर कई विदेशी विद्वानों ने परिश्रम करके महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। रोडने मोग ने ‘फ़िजी हिंदी’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें फ़िजी हिंदी की व्याकरणिक विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। सूजन हाब्स जो फ़िजी में कुछ वर्षों के लिए पीस कोर वालंटियर के रूप में आई थीं, उन्होंने फ़िजी हिंदी-अंग्रेज़ी द्विभाषी शब्दकोश प्रकाशित किया है। जे. एफ़. सीगल ने भी ‘से इट इन फ़िजी हिंदी’ नामक अपनी पुस्तक में फ़िजी हिंदी के लालित्य तथा उसकी भाषिक क्षमता पर अपनी टिप्पणी देते हुए उसकी महत्ता का परिचय दिया है और उसे फ़िजी में विकसित हिंदी की एक विशिष्ट भाषिक शैली कहा है, जो भारत में बोली जाने वाली हिंदी से नितांत भिन्न है। सीगल का विचार है, जैसे विश्व में अंग्रेज़ी की कई भाषिक शैलियाँ विकसित हुई हैं और जो ब्रिटिश इंगलिश से पर्याप्त भिन्न हैं, उसी प्रकार फ़िजी हिंदी भी अपनी व्याकरणिक तथा उच्चारणगत विशेषता के कारण हिंदी से पर्याप्त अलग है।

‘फ़िजीबात’ या ‘फ़िजी हिंदी’ न तो भोजपुरी है और न ही अवधी। वह हिंदी की फ़िजी में विकसित एक नई भाषिक शैली है, जिसमें अवधी की शब्दावली पर्याप्त मात्रा में है, अवधी संरचना के तत्व भी उसमें दिखाई पड़ेंगे तथा अंग्रेज़ी और काईबीती की शब्दावली को भी ग्रहण कर उसने अपना अलग रूप बनाया है, जैसे मोतो (मोती), यंगोना (फ़िजी का एक लोकप्रिय पेय), तांबुआ (घड़ियाल का दांत), कोरो (फीजियन गाँव), लाली (काष्ठ वाद्य) आदि।6

फ़िजी हिंदी को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रो. सुब्रमणी ने अपने दो बृहत् उपन्यास ‘डउका पुराण’ और ‘फ़िजी माँ’, प्रो. ब्रिज विलास लाल ने 'मारिट', रेमंड पिल्लई ने 'अधूरा सपना', बाबूराम शर्मा, महेन्द्र चन्द्र शर्मा 'विनोद', कुशल सिंह, ठाकुर रंजीत सिंह 'फ़िजी पंडित' ने अपने व्यंग्यपूर्ण निबंधों द्वारा दी है ।7

सरनामी हिंदी / सरनामी हिन्दुस्तानी /सरनामी

सूरीनाम में भारतीयों का प्रवेश 1873 ई. में हुआ। आज सूरीनाम में भारतीय मूल के लोगों की संख्या 39 प्रतिशत है, जबकि वहाँ 35 प्रतिशत नीग्रो, 18 प्रतिशत इंडोनेशियन तथा 8 प्रतिशत अन्य जातियों के लोग रह रहे हैं। इस प्रकार संपूर्ण देश में भारतीयों की संख्या सबसे अधिक है। इन भारतीयों के मध्य आपसी बोलचाल की भाषा हिंदी है। इसी हिंदी को सरनामी हिंदी या सरनामी संज्ञा से अभिहित किया गया है। सरनामी हिंदी भी अवधी, भोजपुरी, ब्रज तथा खड़ी बोली का मिश्रित स्वरूप प्रस्तुत करती है।8

सूरीनाम में सरनामी हिंदी में साहित्य सृजन हो रहा है। अमर सिंह रमण, सूर्य प्रसाद बीरे, जीत नारायण, सुरजन परोही, आशा राजकुमार, हरिदत्त लछमन 'श्री निवासी' आदि सूरीनाम के प्रसिद्ध हिंदी लेखक हैं, जो अपनी रचना सरनामी हिंदी में लिख रहे हैं।9 इनकी रचनाएँ भारतीय समाज में बड़े चाव से पढ़ी और सुनी जाती हैं।

नेटाली हिंदी / नेटाली

दक्षिण अफ़्रीका में बसे हुए भारतीय मूल के लोगों के बीच बोली जाने वाली हिंदी की विशिष्ट भाषिक शैली को नेटाली नाम से अभिहित किया जाता है। दक्षिण अफ़्रीका चार प्रांतों में बंटा हुआ है - नटाल, केप, आरेंज फ़्री स्टेट तथा ट्रांसवाल। दक्षिण अफ़्रीका के महानगर डरबन में भारतीय मूल के निवासी सबसे अधिक हैं। यहाँ पर बोली जाने वाली हिंदी जो कि भोजपुरी हिंदी का एक विशिष्ट रूप है, भारतीयों के मध्य बोली जाती है। नटाल में प्रमुखत: हिंदी का व्यवहार होता है। इसलिए यहाँ की हिंदी को नेटाली नाम से अभिहित किया गया है।10

आज दक्षिण अफ़्रीका में नेटाली बोलने वाले भारतीय मूल के लोग अधिक नहीं हैं, यही कारण है कि नेटाली में साहित्य लेखन बहुत कम होता है। वहाँ के लोकगीतों में ही नेटाली का रूप देखने को आज मिल सकता है। भोजपुरी लोकगीतों का एक विशिष्ट रूप, जिसे “चटनी” नाम से संबोधित किया जाता है, आजकल प्रतिष्ठित भारतीय समाज में बहुत लोकप्रिय हो चुका है। विवाह के अवसरों पर इनकी मांग बहुत बढ़ गई है, क्योंकि पश्चिमी डिस्कों की शैली में ढले ये भोजपुरी लोकगीत आधुनिक फ़ैशन के प्रतीक बन गए हैं। इन चटनी लोकगीतों ने भारतीय समाज के सांस्कृतिक तथा भाषिक मूल की ओर भारतीयों को फिर से आकर्षित किया है। यह नेटाली हिंदी है, जो भारतीयों को उनके मूल भारत से तथा उनके कर्मक्षेत्र दक्षिण अफ़्रीका से जोड़े हुए हैं।11

त्रिनिदादी हिंदी

त्रिनिदादी हिंदी से तात्पर्य, त्रिनिदाद देश की उस बोलचाल की हिंदी से है, जो त्रिनिदाद में आये गिरमिटियों के बीच संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी और आज भी प्रवासी भारतीयों की चौथी और पाँचवीं पीढ़ी के बुज़ुर्गों द्वारा पारस्परिक बोलचाल में सुनी जा सकती है। त्रिनिदाद और टोबेगो में बोली जाने वाली हिंदी को त्रिनिदाद में विभिन्न नाम दिए गए हैं। ये त्रिनिदादी हिन्दुस्तानी, त्रिनिदादी भोजपुरी, प्लांटेशन हिन्दुस्तानी और गाँव की बोली के नाम से भी कही जाती है। पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ी की वर्चस्विता के कारण त्रिनिदाद में हिंदी का स्थान अंग्रेज़ी लेती जा रही है और त्रिनिदादी हिंदी लुप्त होने के कगार पर है।12

आज त्रिनिदाद की जनसंख्या में भारतीय मूल के लोगों का प्रतिशतक वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार 37.6 % है, जो सबसे अधिक है। भारतीयों के बाद दूसरे स्थान पर अफ़्रीकन जनसंख्या 36.3% है। 1845 से 1917 के बीच जो भारतीय त्रिनिदाद आये वे अपने साथ भोजपुरी और अवधी लाये थे। बाद के दिनों में तमिल भाषी भी त्रिनिदाद पहुँचे पर हिंदी भाषी भारतीयों की अधिकता के कारण तमिल का संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग न हो सका और हिंदी का संपर्क भाषा के रूप में विकास हुआ।

त्रिनिदाद आये भारतीयों ने त्रिनिदाद में प्रचलित अंग्रेज़ी सीखी पर घरों में बोलचाल के रूप में वे अवधी मिश्रित भोजपुरी का ही प्रयोग करते रहे। पर त्रिनिदादी हिंदी केवल अवधी और भोजपुरी का मिश्रित रूप मात्र ही नहीं है, वरन उसमें त्रिनिदाद में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं के शब्दों का ऐसा और इतना मिश्रण हो गया है कि उनकी हिंदी भारत की हिंदी से बहुत अलग दिखती है।13

हिन्दुस्तानी का आज जो स्वरूप त्रिनिदाद में रह गया है, वह हिंगलिश के रूप जैसा है जिसमें अंग्रेज़ी अधिक है और हिंदी की शब्दावली या पदबंधों का प्रयोग मात्र है। आज बहुत से भारतीय मूल के त्रिनिदादी अपनी प्रार्थनाएँ और भजन हिन्दुस्तानी में ही गाते हैं पर बोलचाल की भाषा के रूप में वह धीरे-धीरे लुप्त-सी ही है। करेबियन 'चटनी संगीत' में हिंदी शब्दों का प्रयोग तो दिखता है, जो यह भी संकेत देता है कि बोलचाल के रूप में अब हिंदी लुप्त होती दिख रही है। आवश्यकता है हिंदी के लुप्त होते रूप के पुनरुद्धार की, जो हिंदी के वैश्विक स्वरूप को पुष्ट करेगी।

गयानी भोजपुरी

दक्षिण अमेरिका में गयाना अकेला देश है, जहाँ अंग्रेज़ी देश की राजभाषा है और जनवर्ग गयानी क्रियोल, जो अंग्रेज़ी आधारित क्रियोल है, बोलता है। आज वहाँ बसे भारतीय इन्हीं भारतीय गिरमिटियों के वंशज हैं और 174 वर्ष पूर्व पूर्वजों की भारतीय संस्कृति, परम्परा एवं रीति-रिवाज़ का आज भी पालन कर रहे हैं।

गयाना देश की राजभाषा अंग्रेज़ी है और शिक्षा प्रशासन, जनसंचार तथा अन्य क्षेत्रों में आज अंग्रेज़ी का प्रयोग होता है। अधिकांश जनता गयानी क्रियोली का प्रयोग करती है, पर सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों पर भारतीय भाषाओं का प्रमुखतः हिंदी का प्रयोग होता है, जो निरंतर घटता जा रहा है। गयानी क्रियोल अंग्रेज़ी, अफ़्रीकन तथा हिंदी शब्दों के मिश्रण से निर्मित बोली है। भारतीय और अफ़्रीकी जातीय समुदाय के मिश्रण से यहाँ की संस्कृति बहुत कुछ त्रिनिदाद की संस्कृति जैसी है। सतुआ, फुलौरी, परसाद और दाल पूरी आदि कितने ही हिंदी के शब्द हैं, जो गयाना में आपको जनसमाज के बीच सुनाई पड़ेंगे।

गयानी भोजपुरी वहाँ के बड़े-बूढ़ों के मध्य ही बची है। युवा पीढ़ी तो अब हिंदी को भूल-सी चुकी है, किन्तु उनकी क्रियोल में हिंदी के अनेक शब्द आज भी मिलेंगे, जो कभी हिंदी के पुनरुद्धार के कारण बन सकते हैं।14

रोमानी हिंदी

रोमा जनजातीय समुदाय यायावरी प्रकृति का है, इसलिए जहाँ-जहाँ वे गए और रहे वहाँ की रोमानी में उन देशों की भाषाओं के भी शब्द जुड़ते चले गए और रोमानी के अनेक भाषा रूप भी होते गए। अपने बल्गारिया प्रवास में मेरा कई रोमा विद्वानों से संपर्क हुआ, जिनकी भाषा अध्ययन में रुचि थी और उन्होंने मेरे साथ रोमा-हिंदी-बल्गारियन कोश पर कार्य भी किया। रोमा लोगों को बल्गारिया में 'सिगनी' नाम से अभिहित किया जाता है। वे अलग बस्तियों में रहते हैं। उनके रहन-सहन का तरीका जिन देशों में भी हैं, उससे अलग ही है। उनकी मान्यताएँ, रीति-रिवाज़, अनुष्ठान आदि भी विभिन्न है, जो मूल रूप में कहीं भारत की संस्कृति के लक्षणों से संपृक्त हैं।

रोमा लोगों की भाषा जिसे रोमानी की संज्ञा दी गई, उसमें विद्वानों का मानना है कि 40% - 50% शब्द हिंदी के तथा 30% - 35% सिन्धी और शेष पंजाबी, कश्मीरी, गुजराती और यूरोपीय भाषाओं के शब्द हैं।15 रोमानी हिंदी पर अभी भी काम नहीं के बराबर हुआ है।

पार्या

रूसी भाषाविदों का विचार है कि उज़्बेकिस्तान तथा तजाकिस्तान में बोली जाने वाली भाषा पार्या भी हिंदी की ही एक भाषिक शैली है।16 पार्या भाषा के लिए अफ़गानी, जवान-ई- अफ़गानी, इंकू, लफ़ज़-ई-इंकू, सुरहानी, चंगर, चश्क गरक आदि नामों का भी प्रयोग होता है। इस भाषा के बोलने वाले अपने को अफ़गान शइखोल तथा पार्या भी कहते हैं। पार्या भाषा-भाषियों की संख्या आज कितनी है, इसके कोई प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। पार्या भाषा-भाषियों की संख्या विद्वानों ने अनुमानत: 6000 बताई है। मार्गदोविच ने अपने एक प्रकाशन में उनकी संख्या जरफ़शां में 65 तथा दुशाम्बे में 300 बताई है। पार्या भाषी अपना मूलस्थान अफ़गानिस्तान में लगमान बताते हैं। पार्या की न अपनी कोई लिपि है न ही लिखित साहित्य सम्पन्न है। लोकगीत तथा लोक कथाएँ दोनों ही पार्या में मिलती हैं। रूसी विद्वान ओरांस्की ने पार्या लोकसाहित्य पर पर्याप्त कार्य किया है।17

संरक्षण और संवर्धन की समस्या और चुनौती

प्रवासी हिंदी के सम्बन्ध में सबसे बड़ी समस्या और प्रमुख चुनौती यही है कि इन भाषा रूपों का संरक्षण और संवर्धन कैसे हो? विश्व की अनेक भाषाएँ आज विलुप्त होने के कगार पर हैं। कुछ विलुप्त हो चुकी हैं। विलुप्त भाषाओं के साथ उन भाषाओं के बोलने वालों की संस्कृति और उसमें संचित अभिव्यक्तियाँ भी लुप्त हो जाती हैं। अवधेय है कि मॉरीशस, त्रिनिदाद और दक्षिण अफ़्रीका में बोली जाने वाली हिंदी, जो वहाँ के प्रवासी भारतीयों के मध्य विकसित हुई थी, उनके दुख-सुख की, आशा-निराशा की अभिव्यक्तियों की संचित निधि थी, वह लुप्त हो रही है और उसका स्थान अंग्रेज़ी लेती जा रही है। फ़िजी और सूरीनाम में हिंदी की स्थिति अधिक अच्छी है। वे अपनी हिंदी की सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए निरन्तर संघर्षरत हैं। भाषा के विलुप्त होने के खतरे को समझते हुए फ़िजी के प्रो. ब्रज विलास लाल, प्रो. रेमण्ड पिल्लई, प्रो. सुब्रमणी, श्री महेन्द्रचन्द्र शर्मा ‘विनोद’, श्री महावीर मित्र, श्री काशीराम कुमुद, श्री बाबू राम शर्मा जैसे सृजनात्मक लेखक फ़िजी में और सूरीनाम में डॉ. जीत नराइन, श्री हरदेव सहतू, आशा राजकुमार, श्री अमर सिंह रमण जैसे व्यक्ति अपनी हिंदी को बचाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। वे इसमें साहित्य सृजन कर इसे प्रतिष्ठित कर रहे हैं और अच्छी साहित्यिक रचनाएँ देकर विदेश में भी हिंदी को समृद्ध कर रहे हैं। यह सही है कि इन शैलियों में अभी भी कम रचनाएँ हो रही हैं, पर आशा की जाती है कि हिंदी के इन रूपों के महत्त्व को जैसे-जैसे हम समझेंगे, इनमें अधिक रचनाएँ आएँगीं। परिनिष्ठित हिंदी इन भारतवंशियों की सायास सीखी हुई भाषा है, इसलिए जो अधिकार अपनी मातृभाषा अर्थात् ‘फ़िजी हिंदी', 'सरनामी हिंदी' अथवा 'नेटाली हिंदी’ पर इनका है, वह भारत की हिंदी पर नहीं हो सकता है और अच्छी प्रौढ़ रचनाएँ प्रवासी भारतीयों की अपनी विकसित हिंदी में ही हो सकेंगी।

किसी एक भाषा का लुप्त हो जाना उस भाषिक समुदाय की संस्कृति, अनुभूति और अभिव्यक्ति, आचार-विचार मान्यताएँ और आस्था-विश्वास का लुप्त हो जाना है। भाषा बचती तभी है, जब तक उसका बोलचाल में प्रयोग होता रहे। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हिंदी के विदेश में विकसित इन भाषा रूपों को हम प्रोत्साहन दें, जिससे हिंदी विश्वभाषा के पथ पर और समर्थ भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो सके।

सन्दर्भ :

1. वर्मा, विमलेश कान्ति, प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 12

2. सुषम बेदी, हवन, पराग प्रकाशन, नई दिल्ली 1989, पृष्ठ 129

3. सन्यासी, भवानी दयाल, प्रवासी की आत्मकथा, प्रवासी भारतीयों की राष्ट्रभाषा आर्य युवक सभा, दक्षिण अफ़्रीका, होप इंडिया, गुड़गाँव 2013, द्वितीय संस्करण 2013, पृष्ठ 168-169

4. वर्मा, विमलेश कान्ति, हिंदी एक रूप अनेक, वाक् वर्ष 1, अंक 1, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

5. वर्मा, विमलेश कान्ति व धीरा वर्मा, फ़ीजी में हिंदी-स्वरूप और विकास, पीताम्बरा प्रकाशन, नई दिल्ली 2000

6. वर्मा, विमलेश कान्ति, फ़ीजी बात, हिंदी की एक विदेशी शैली, बहुवचन अंक 46, वर्ष जुलाई-सितम्बर 2015, पृष्ठ 7-25, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

7. वर्मा, फ़िजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2012

8. वर्मा, विमलेश कान्ति, सरनामी हिंदी; साहित्यिक परिधि, चक्रवाक, संयुक्तांक 40-41, अप्रैल-सितम्बर 2017, पृष्ठ 22-39

9. वर्मा, विमलेश कान्ति व भावना सक्सेना, सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, राधा कृष्णा प्रकाशन व महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, नई दिल्ली 2000

10. सीताराम, रामभजन-नेटाली हिंदी, बहुवचन अंक 46, वर्ष जुलाई-सितम्बर 2015, पृष्ठ 86-104, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

11. Rambilass, B. Naitali - South African Bhojpuri, Journal of Indological Society of South Africa Vol.5, 1996

12. Mahabir, Kumar, A Dictionary of Common Trinidadian Hindi, Illustrations S.K. Raghbir, Chakra Publishing House, San Juan, Tinidad and Tobago, Edition 2005 pp.79

13. वर्मा, विमलेश कान्ति, हिंदी-स्वदेश और विदेश में, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, लोधी एस्टेट, नई दिल्ली 2018

14. गंभीर, सुरेन्द्र, प्रवासी भारतीयों में हिंदी की कहानी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली व महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 2017

15. अ. शशि, श्याम सिंह, विश्व के रोमा-जिप्सी तथा यायावर समुदायों का हिंदी संसार, प्रवासी संसार वर्ष 4, अंक 3, जुलाई-सितम्बर 200, पृष्ठ 90-92

आ. वैष्णव, यमुना दत्त 'अशोक 'जिप्सियों की भाषा और हिंदी, प्रवासी संसार वर्ष 4, अंक 3, जुलाई-सितम्बर 2007, पृष्ठ 93-95

16. ओरान्स्क्या, तात्याना, पार्या भाषा : ताजिकिस्तान-उज़्बेकिस्तान में हिंदी की सगी बहिन, बहुवचन अंक 46, जुलाई-सितम्बर 2015, पृष्ठ 65-85

17. तिवारी, भोलानाथ, सोवियत संघ में बोली जाने वाली हिंदी बोली : ताजुज़्बेकी/ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन तथा संक्षिप्त शब्द कोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली

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