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रचनाः श्रीमती नर्वदा खेदना
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

‘श्री रामचरितमानस’ से मॉरीशस टापू का बहुत गहरा सम्बन्ध है। मॉरीशस जिसकी उपमा अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने स्वर्ग से की थी, यह निस्संदेह इसलिए, क्योंकि मॉरीशस संस्कारों की धरती है। यहाँ हर कौम के लोग, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सभी एक-दूसरे के पर्व-त्योहारों में समान रूप से भाग लेते हैं, फिर, चाहे वह दीपावली, ईद या क्रिस्मस हो।

रामायण से निःसृत लोकगीत

- श्रीमती नर्वदा खेदना

महर्षि वाल्मीकि कृत संस्कृत गर्भित ‘रामायण’ व तुलसी कृत ‘श्री रामचरितमानस’, दोनों ही सर्वोच्च कोटि के ग्रन्थ हैं। लोकमंगल तथा लोक हिताय की दृष्टि से ‘रामचरितमानस’ की लोकप्रियता अधिक मानी जाती है। उसकी लोक मानस की सरल भाषा ने जन-जन के मन में स्वतः जगह बना ली है। उत्तम रचना होने के साथ-ही-साथ, एक आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पातिव्रत जीवन व आदर्श भ्रातृ-प्रेम को जिस रोचकता एवं ओजस्विता से प्रस्तुत किया गया है, वैसा शायद ही किसी और कृति में की गयी हो। अतः श्री रामचरितमानस को एक सर्वांग सुन्दरतम काव्य कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी।

भक्तिकाल के श्री रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्री रामचरितमानस’ की रचना सन् 1631 ई. सरयू नदी किनारे आरम्भ की तथा सन् 1633 ई. अर्थात् दो वर्ष, सात महीने व छब्बीस दिन में सात कांडों में सम्पूर्ण कर, अपनी लेखनी को विराम दिया।

‘श्री रामचरितमानस’ से हमारे इस छोटे मॉरीशस टापू का बहुत गहरा सम्बन्ध है। मॉरीशस जिसकी उपमा अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने स्वर्ग से की थी, यह निस्संदेह इसलिए, क्योंकि मॉरीशस संस्कारों की धरती है। यहाँ हर कौम के लोग, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सभी एक-दूसरे के पर्व-त्योहारों में समान रूप से भाग लेते हैं, फिर, चाहे वह दीपावली, ईद या क्रिस्मस हो।

इतिहास पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही साक्षात्कार करता आ रहा है कि 18वीं शताब्दी में तक़रीबन 468,000 शर्तबंध मज़दूरों को भारत से यहाँ दीन-हीन अवस्था में लाया गया था। वे थे हमारे पूर्वज। उनकी व्यथा को यहाँ कदाचित दोहराएँगे नहीं, क्योंकि उन्होंने कभी हार नहीं मानी थी, वे साहसी थे, हौसला हमेशा बुलंद था और ऐसी जटिल परिस्थिति में उनका एक मात्र सहारा था, उनकी अपनी संस्कृति, उनका अपना संस्कार। उस अन्धकारमय सुरंग में ‘श्री रामचरितमानस’ ने रोशनी बन संजीवनी बूटी का काम किया। कहते हैं, राम से बड़ा राम का नाम होता है। अमृतमयी श्री राम नाम ने ऐसी लीला रचाई कि घना पड़ा जंगल बन गया हिन्द महासागर का तारा, मॉरीशस देश। कैसे? हमारे पूर्वजों के अपने संस्कारों, अपनी संस्कृति, व अपनी अथक मेहनत पर अटल विश्वास की बदौलत।

लोकगीत

प्राचीन काल से संगीत, मानव-मन को शांति प्रदान करने का एकमात्र साधन रहा है। मनुष्य अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए संगीत का सहारा लेता है। आत्माभिव्यक्ति हेतु संगीत का पक्ष मनुष्य ही नहीं, अपितु देवगण, प्रकृति, पशु-पक्षी व कीट-पतंग भी लेते हैं।

नारद मुनि जहाँ अपनी वीणा की धुन पर नारायण की मधुर तान छेड़ते थे, वही तानसेन बुझते दीये को अपने गायन से पुनः प्रज्वलित करने का सामर्थ्य रखते थे।

इधर प्रकृति के कण-कण में भी संगीत की छाप है। हवा की सांय-सांय में संगीत, पत्तों की सरसराहट में संगीत, नदियों में कल-कल करता बहते पानी में संगीत, पक्षियों के कलरव में संगीत, तो झींगुरों के समूह-गान में भी, सर्वत्र संगीत बिखरा पड़ा है। ऐसे में हमारे पूर्वज, प्रकृति के बीचों-बीच रहते हुए संगीत से दूर कैसे रह सकते थे?

हमारे सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्त्वपूर्ण अंग संगीत ही तो है। हमारे पूर्वजों ने अपने साथ न सिर्फ़ अपने धार्मिक-ग्रन्थ, अपितु अमूर्त विरासत के रूप में लोकगीत को भी नहीं छोड़ा। उनके सुख-दुख के साथी ‘रामचरितानस’ से निःसृत लोकगीतों ने हर कदम पर साथ निभाया। ‘लोक’ का अभिप्राय साधारण जनता से है, जिसकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं, अपितु सामूहिक पहचान है। लोकगीत, कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता है। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के लिए गाये गीतों को लोकगीत कहा जाता है। इस प्रकार ‘रामचरितमानस’ के पात्रों से प्रभावित कई लोक गीत प्रसिद्ध हैं, जिनमें श्री राम जनम, उनकी शौर्य गाथा तथा सिया-राम विवाह से जुड़े असंख्य लोकगीत जो आज भी शादी-ब्याह की शान हैं।

ललना गीत

लोकगीत को संस्कार गीत भी कहा जाता है, जिसे श्रद्धा-भक्ति से गाया जाता है। जैसे, शिशुओं के जन्मोत्सव पर गाये जाने वाले गीत होते हैं, मुंडन संस्कार के गीत, उपनयन संस्कार के गीत आदि। जब संस्कार गीत की बात होती है, तो ललना गीत सब से प्रचलित है। ललना के उदाहरण द्रष्टव्य हैं :

“अयोध्या में बाजे ला बधाइयाँ श्री राम जी जनम भये हो ....

अहो ललना ...

अहो ललना ...गोदिया में खेले श्री राम जी ...

कौशल्या खेलावे ला हो ...”

यह ललना आज भी उतना ही लोकप्रिय और प्रसिद्ध है, जितना कि त्रेता युग में श्री राम जी के जन्म पर रहा होगा।

“दादा के अंगनवा में कुइयां खदैयला हो ...

अहो ललना ... अहो ललना

कुइयां के पियर-पियर मटिया हो....

जाइ के जाग्यअ उनकर दादा के नाती जनम लेले हो ...

अहो ललना...”

हमारी दादी-नानी थरिया-लोटा बजाकर गाया करती थीं और आज भी यह परम्परा उतना प्रचलित है। रेडियो के माध्यम से जन्मदिन के अवसर पर ललना गीतों की माँग अभी भी की जाती है तथा स्थानीय कलाकार अपने धुन में इन गीतों को गाते-सुनाते रहते हैं।

उपनयन संस्कार

सोलह संस्कारों में दसवाँ संस्कार है उपनयन, जिसे यज्ञोपवीत भी कहा जाता है। प्राचीन काल से विद्या ग्रहण से पूर्व यह संस्कार शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास के लिए किया जाता रहा है। बाल्यावस्था में श्री राम अपने तीनों भाई सहित जब गुरुकुल के लिए प्रस्थान हो रहे थे, उसी सन्दर्भ में एक लोकगीत है।

उपनयन संस्कार गीत :

“चिकन माटी के चौका बनयली ...

चाहि चौका पर बैठेलन राजा दशरथ...

राम बरवा गोदिया लेले ...

जेकर जनेववा होवे ...

पिछवरया पंडित भइया वेगी चली आवो ...”

हिन्दू धर्म में संस्कारों का बहुत बड़ा महत्त्व है। जब भी हम जीवन में कुछ नया करने जाते हैं, तो परम पिता परमेश्वर से कार्य की सफलता के लिए प्रार्थना करते हैं।

माता सीता भी अपने विवाह से पूर्व माता गौरी से योग्य वर व देवर की कामना करती है।

मनोकामना पूर्ति पर आधारित यह लोकगीत :

“सीता जी मांगे ला हो...

दशरथ ऐसन ससुर ...

अहो सीता जी मांगे ला अयोध्या के राज सरजू नहनर को ...

कौशल्या ऐसन सासू ...

अहो सीता जी मांगे ला अयोध्या के राज सरजू नहनर को ...

सीता जी मांगे लाहो लक्ष्मण ऐसन देवर ...

अहो सीता जी मांगे ला अयोध्या के राज सरजू नहनर को ...

राम ऐसन भगवन ....

अहो सीता जी मांगे ला अयोध्या के राज सरजू नहनर को ...”

लोकगीत के और कई प्रकार हैं, जैसे वीर रस से परिपूर्ण - लोरिकायन (राजा-महाराजा की वीरता पर आधारित), झूमर गीत या बिरहा गीत है।

बड़े-बुज़ुर्ग कहा करते थे कि हमारे परदादा अपनी व्यथा बिरहा गाकर सुनाया करते थे। परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, घर की चाहे जैसी भी दशा हो, बहु-बेटियाँ हर मुश्किल का सामना करती हुई जीवन ले जाती थी, पर कभी बड़ों के सामने मुँह नहीं खोलती थीं। उनमें अपार सहन शक्ति थी। घर-गृहस्थी पर कभी आँच आने नहीं देती। बस प्रभु राम नाम का ही आसरा था।

बिरहा :

“पिस पिस जंतवा चढ़यले गेहुवा ...

आजू भैया अय्ह्लन पहुनवा...हो राम

मच्या बैसलहन... सासु बरहैतीं

काहे देबो भैया जेवनरन्या हो राम ...”

लोकगीत सामान्य मानव की सहज संवेदना से जुड़े हैं। भारतीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के शब्दों में “लोकगीतों में, धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं और उत्सवों के अवसर पर मधुर कंठों से लोक समूह लोकगीत गाते हैं।”

सन् 1890 के दशक में मॉरीशस में परिस्थिति सामान्य नहीं थी, फिर भी अपनी संस्कृति को गति देने के उद्देश्य से, अँधेरे में मशाल बन कर सामने आने वाले भारत के बिहार राज्य से श्री नन्दलाल जी को शत-शत प्रणाम है। वे भी शर्तबंध मज़दूर के रूप में ही आये थे तथा लाबुर्दोने, कॉटेज की शक्कर कोठी में, सरदार के हैसियत से कार्यरत थे। वे, वही महान आत्मा थे, जिन्होंने मॉरीशस में पहली बैठका की नींव रखी थी और साप्ताहिक तौर पर रामायण गान की परंपरा भी आरम्भ किया था। उन्होंने तीन दशकों तक सुचारू रूप से फ़ॉर्बाक रोड, लाबुर्दोने, कॉटेज में रामायण गायन की प्रथा जारी रखी। यही नहीं श्री नन्दलाल जी ने होली के अवसर पर चौताल और रामलीला के आयोजन का भी श्री गणेश किया। चौताल गाने की यह परंपरा आज भी गाँव-गाँव व शहर-शहर में है।

उन दिनों होली के अवसर पर चालीस दिनों तक चौताल गायन हुआ करता था। आज भी कई जगहों पर चौताल की प्रतियोगिताएँ होती हैं, जिनमें बड़े-बुज़ुर्ग-युवा सभी भाग लेते हैं। इस मौके पर बैठकाओं में चाय-पकोड़ों की व्यवस्था भी की जाती थी। आज भी यह परंपरा है।

झाल-मंजीरा, ढोलक बजाते लोग बड़ी खुशी के साथ चौताल गाते थे और गाते हैं। विश्वास है कि लोकगीत की यह प्रथा आगे भी जारी रहेगी।

चौताल :

“काहंवा से आ...वेला ... राम और लक्ष्मण

काहंवा से आवे हनुमान ...

डाले तुलसी के मा...ला (2)

उत्त...र से आवे ला... राम... और लक्षमण

दक..क्षिण... से आवे हनुमान...

डाले तुलसी के मा...ला।“

1840 से 1890 के अंतराल में भारत के बिहार राज्य, उत्तर प्रदेश, तमिल-नाडु, महाराष्ट्र, केरल तथा अन्य कई प्रान्तों से हमारे पूर्वज, नए सपने संजोये, अपनी नयी दुनिया बसाने यहाँ आये थे।

कठोर परिश्रम के मध्य उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखा और श्री नन्दलाल जी के नेतृत्व में कई रामायण मंडलियों का गठन होने लगा। इन टोलियों द्वारा नित्य रूप से रामलीला का आयोजन होने लगा और गाँव-गाँव की बैठकाओं में इसका मंचन होने लगा तथा बच्चे-बच्चे राम लीला में प्रस्तुत लोकगीतों को गाते-गुनगुनाते रहते थे।

इसी बीच एक और पुण्यात्मा ने सूर्य की किरण बन, समाज को आलोकित करने का सफल प्रयास किया। वे थे, बिहार राज्य से आये, सरदार धरमसिंह। सन् 1850 से 1880 के दशक में, इन्होंने कई बैठकाओं की स्थापना की तथा नन्दलाल जी द्वारा प्रज्वलित अग्नि ‘रामलीला’ को और भीषण बनाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। मध्य 19वीं शताब्दी से देश भर में राम लीला का भव्य आयोजन आरंभ हो गया। नाट्य शैली के माध्यम से रामचरितमानस का अक्षुण्ण अमृत धारा जन-जन को शीतलता प्रदान करने लगी। छोटे से बड़े सभी एकजुट होकर, हर्षोल्लास के साथ अपनी इस अमूर्त विरासत को नए आयाम तक पहुँचाने की दिशा में कार्यरत हो गए। गर्व की बात तो यह है कि सन् 2005 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा रामलीला को विश्व अमूर्त विरासत की सूची में शामिल कर दी गयी।

रामचरितमानस क्षणे-क्षणे हमारे पूर्वजों के लिए एक आशीर्वादात्मक ग्रन्थ बन गया। ऐसा इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि तुलसी के राम ने साधारण मनुष्य की भाँति अपना जीवन मुश्किलों का सामना करते हुए बिताया। तभी, रामचरितमानस संतमुखश्रुत से लोकगीतों के रूप में विख्यात होने लगा। इसमें निहित उपदेशों को लोक जीवन में नित्य रूप से उतारा गया। श्री राम का चरित्र लोक हिताय है, यही कारण है कि लोकगीतों में श्री राम की छवि मनभावन बन पड़ी है।

लोक-गीत परंपरा से विवाह संस्कार भी जुड़ा हुआ है, जैसे कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। शादी-ब्याह में सिया-राम के विवाह से सम्बंधित लोक-गीतों के बिना आज भी कोई विधि संपन्न नहीं हो सकती।

शादी के ये लोक-गीत मॉरीशस में ‘गीत-गवाई’ नाम से जाना जाता है, जो हमारे पूर्वजों की ही देन है। शादी से जुड़ी कई परम्पराएँ होती हैं, जैसे ‘माती-कोराय, दो मेला, शादी गीत, झूमर, विदाई गीत आदि।

परछावन गीत :

विवाह से पूर्व वर पक्ष एवं कन्या पक्ष से सम्बंधित लोक गीत का भी उल्लेख किया जाता है तथा ये गीत रामायण से पूर्णतः सम्बन्ध रखते हैं।

इन्हीं लोकगीतों में से एक अंश :

“शुभदिन आज तुम्हार आयो जी, वर ब्याहन जायो

मंगल मूर्ति, सुन्दर सुरती...

कर जोर नमस्ते सुनाओ जी, वर ब्याहन जायो

चंदन, थार, कपूर, सुगंधी...

प्रेम से आरती उतार जी, वर ब्याहन जायो ...”

ये लोकगीत आज भी हमारी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। तभी तो चाहे कितने भी आधुनिक गाने हों, फिर भी पारंपरिक लोकगीतों की बात ही अलग है।

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित मानस में श्री राम, लक्ष्मण, सीता, चौदह वर्ष वनवास के लिए अयोध्या से निकलकर निषाद राज के साथ गंगा नदी के तट पहुँचते हैं, जहाँ केवट मिलता है। श्री राम केवट से नाव मांगते हैं ,लेकिन केवट नहीं मानता है, कहता है कि मैं तुम्हारा भेद जान गया :

“मांगी नाव न केवटू आना।

कहइ तुम्हार मरमु में जाना॥”

तुम्हारे चरणों के स्पर्श से पत्थर, सुन्दर स्त्री बन गयी थी, मेरी नाव तो लकड़ी की है और यही मेरे परिवार के भरण पोषण का आधार है :

“छुअत सिला भइ, नारि सुहाइ।

पाहन ते न काठ कठिनाई॥”

फिर केवट श्री राम के चरण धोते हैं, इसके बाद ही उन्हें श्रद्धा भाव के साथ गंगा पार करवाते हैं।

ये लोकगीत हमारे सांस्कृतिक धरोहर हैं। इन सभी गीतों में मानो श्री राम जी और माता सीता की छवि नज़र आती हैं।

आज भी हरेक कन्या श्री राम जैसे आदर्श पति की कामना करती है तथा हर वर सीता जैसी संगिनी की इच्छा रखता है। मॉरीशस में विवाह के अवसर पर इन गीतों का गायन ज़रूर होता है। इस अमूर्त विरासत को 1 दिसंबर 2016 को यूनेस्को (UNESCO) की सूची में शामिल कर दिया गया है तथा भावी नयी पीढ़ी तक सुरक्षित पहुँचाने के उद्देश्य से पूरे मॉरीशस में पचासों गीत गवाई स्कूल कायम किए गए हैं, जहाँ बुज़ुर्ग दादी-नानी, जिन्हें गीथारिन कहते हैं, वहाँ जाकर अपने इन लोक गीतों को युवाओं तक पहुँचाने में सफल प्रयास कर रही हैं। इन्हें मौखिक से लिखित रूप दिया जा रहा हैं। हर्ष की बात है कि आजकल मात्र वृद्ध जन नहीं, अपितु जवान भी ये गीत सीख रहे हैं और इस प्रकार रामायण से जुड़े पारंपरिक लोक गीत मॉरीशस में भारतीय संस्कृति को जीवित रखने में अप्रतिम योगदान दे रहे हैं। हमारे सभी संस्कार गीतों का आलंबन राम-सीता हैं। इन गीतों व लोक-गीतों की बदौलत हमारी संस्कृति जीवित है। यह ऐसी संस्कृति है, जो शाश्वत है।

लोक संस्कृति

‘रामायण’ एक तरफ़ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के मूल्यों को उजागर करता है, तो दूसरी ओर लोक जागरण की प्रभाती के रूप में सामने आता है। भारत के विशाल परिवार से कटकर, जब हमारे पूर्वज इस घने जंगल में आये थे, तब दुख-दर्द तथा अपने भविष्य के प्रति भय की भावना के अतिरिक्त और कुछ साथ नहीं लाये थे। श्री राम जी के त्याग रूप का स्मरण करते हुए तथा अपनी कुंठाओं का दमन करते हुए अपनी संस्कृति को आभा बनाकर उसकी ज्योति में आगे बढ़ने का दृढ़ संकल्प, उनके लिए मात्र सहारा था।

संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है। आधुनिक काल के प्रकांड विद्वान, उपन्यासकार एवं निबंधकार डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “लोकसंस्कृति वह संस्कृति है, जो अनुभव, श्रुति और परंपरा से चलती है। लोक संस्कृति का आशय लोक-जीवन की संस्कृति से है, जिसके आधार पर लोगों के रहन-सहन, रीती-रिवाज़, खान-पान, वेशभूषा, धर्म-कला आदि उभरकर प्रकट होते हैं।

मॉरीशस में बैठकाएँ स्थापित हो चुकी थीं, राम-लीला का प्रचलन भी ज़ोरों से विकसित हो रहा था। राम-लीला में सभी भाग नहीं ले पाते थे। ऐसे में मात्र दर्शक बने रहने की बजाय छोटी-छोटी टोलियाँ बनकर तैयार हुई। झाल-ढोलक, मंजीरा जैसे पारंपरिक संगीत वाद्य-यंत्रों के साथ रामायण गान शुरू हुआ और चौताल भी गाये जाने लगे और हमारी संस्कृति ने गति ली। रामायण मंडलियों की शोभा में चार चाँद तब नज़र आने लगे, जब विशेष आयोजनों में गाँव-गाँव की मंडलियाँ पूरी तैयारियों के साथ अपनी पारंपरिक धोती-कुर्ता व पगड़ी धारण किये जोश के साथ रामायण-गान रात भर करती। यह परंपरा आज भी जारी है।

दोहा रामायण :

“मंगल भवन अमंगल हारी ...राम-लक्षण...जान...की..

द्रवहु, सुदसरथ अजीर बिहारी...जय बोलो हनुमान की...

( विद्या प्राप्ति के लिए )

'गुरु गृह गए, पढ़न रघुराई ।...राम-लक्षण...जान...की

अल्प काल, विद्या सब आई।।'... जय बोलो हनुमान की...”

मॉरीशस में रामायण से नि:सृत लोकगीत बैठकाओं के बरामदों व कुटियों से निकलकर आधुनिक मंच पर पहुँच गया है। पूर्व में जहाँ पेड़ों की छाँव तले, गली-गलियारों में रामायण मंडलियाँ अपना गायन प्रस्तुत करती थीं, वही आज भव्य रूप से पूरे सम्मान एवं स्वाभिमान और सारी सुविधाओं के साथ तैयारियाँ होती हैं। आज देश के हरेक गाँव-शहर में लगभग एक दर्जन रामायण मंडलियाँ हैं। इन मंडलियों के उल्लास को देखते हुए संबद्ध संस्थाएँ रामायण गान प्रतियोगिताओं का आयोजन करने लगीं। इस तरह की गतिविधियों से हमारी भावी पीढ़ी, हमारी बहुमूल्य लोक संस्कृति से अवगत होकर, इसे अपने जीवन में स्वतः उतारते हैं। युग चाहे कितना भी आधुनिक क्यों न बन पड़े, हमारे युवा होली के दिन चौताल गाना नहीं छोड़ेंगे, दीपावली में दीये प्रज्वलित करना नहीं भूलेंगे, कोई भी दुल्हन पतलून-कमीज़ पहनकर मंडप में नहीं आएगी, रक्षा-बंधन के दिन बहनें भाई की कलाई में रक्षा-सूत्र बाँधना नहीं भूलेंगी, और तो और लोक संस्कृति के अंतर्गत आने वाले खान-पान में न खीर-पूरी, न ही दाल-चावल-चटनी का त्याग करेंगे, क्योंकि हमारी संस्कृति की नींव रामायण से जुड़ी है, जो स्वयं एक अमर ग्रन्थ है।

निस्संदेह रामायण मानव जीवन के हरेक पहलु को दर्शाता है, जन्म से लेकर अंतिम यात्रा तक रामायण के मूल्यों से लोक जीवन को दिशा प्राप्त होती है। इस मोह-माया के बंधन से मुक्त होकर जब मनुष्य अपनी काया को छोड़ अपनी अंतिम यात्रा की तरफ़ चल पड़ता है, तब भी सगे–सम्बन्धी रामनाम सत्य दोहराते हुए ले चलते हैं।

अंतिम संस्कार के सन्दर्भ में लोकगीत :

“राम चले वन में, लखन चले वन के,

सीता चले वन के...

दशरथ चले धाम हो...

सर धुनी-धुनी रोवे ला, कोसिला हो माई ...

आज मोरे आंगन में पता झरे ला हो... डारवा टूटे ला हो ...

कोन दिसवा से आवे ला पवनवा ...”

रामायण मानव चेतना के निर्माण का अद्भुत रसायन है। लोक मंगल, मर्यादा व विवेक से रहने की कला रामायण से प्राप्त होती है, अर्थात् रामायण से निःसृत लोकगीतों की प्रासंगिकता आज भी है।

सत्य है कि आज की परिस्थिति राम युग से भिन्न नहीं है, आज भी रावण, शूर्पणखा जैसे असुरों के कारण अमर्यादा का साम्राज्य, धार्मिक व सामाजिक दुर्व्यवस्था की वजह से मानवता कराह रही है, ऐसे में रामायण के आदर्श पात्र हम साधारण मनुष्यों को राह दिखाने में सहायक है। राम जैसे आदर्श पुत्र, पति, पिता, भरत का अपने भाई के प्रति कर्तव्य, माता अहल्या की पवित्रता, सीता माता की अग्नि परीक्षा, हनुमान जी की आस्था एवं माता शबरी की भक्ति वन्दनीय हैं। रामायण के ये पात्र मॉरीशस के लिए ही नहीं समस्त संसार के लोगों के लिए दिशानिर्देश हैं।

रामचरितमानस के लोकगीतों में हमारी संस्कृति के प्राण बसे हैं, ऐसा कहना सर्वोचित है। वर्तमान व भावी पीढ़ी को संस्कारवान और आदर्श नागरिक बनाने में ‘रामायण’ में विद्यमान उत्तम मानव मूल्यों का पिटारा और किसी भी ग्रन्थ में मिल पाना दुर्लभ है।

मॉरीशस छोटा-सा देश है, परन्तु जिस आयाम से रामायण के लोकगीतों का बृहत प्रचार यहाँ होता आ रहा है और जिस उत्साह के साथ युवा वर्ग रामायण चौताल, ललना गायन, आदि गतिविधियों का आयोजन कर रहा है, इन्हें देखकर मन स्वाभाविकत: खिल उठता है। ध्यातव्य है कि मॉरीशस में 31 अगस्त, 1990 को आयोजित छठे रामायण सम्मेलन के सन्दर्भ में मॉरीशस के दो गाँवों के नाम बदले गए थे - उत्तर प्रान्त में ‘हेर्मिताज़’ गाँव का नाम ‘पंचवटी’ और ‘अपर वाले दे प्रेत्र’ का नामकरण हुआ था ‘चित्रकूट’।

इन दोनों गाँवों के नाम ‘रामायण’ से पूरी तरह सम्बन्ध रखते हैं। श्री राम की संस्कृति ऐसे ही अविरल गति से बहती रहे और इसके शीतल जल से हरेक पिपासु की जिज्ञासा शांत होती रहे तथा चीर काल तक हरेक को अजस्र ऊर्जा प्रदान करती रहे।

रामचरितमानस से निःसृत लोकगीत निस्संदेह एक ऐसा प्रकाश पुंज है, जिसके आलोक में हमारी संस्कृति सदैव पुष्पित व पल्लवित रहेगी। हमारी संस्कृति सूर्य की उगती किरणों की भांति चमकती रहे।

संदर्भ :

1. India Today Oct. 2013

2. MauritiusTimes 18.09.2015

3. Appravasi Ghaat Magazine Nov. 2017

4. Information from Old village people

5. Folk Songs from different groups from all over the Island (GEETHARINE)

narvadakhednah@gmail.com

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