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रचनाः डॉ. रणजीत साहा
तिथिः 09 जून 2021
श्रेणीः  लेख

रचना परिचयः

बावजूद कठिनाइयों के, हिंदी की संघर्ष यात्रा अपनी समस्त गतिविधियों के साथ अबाध आगे बढ़ती रही। इस गतिशील यात्रा में, हिंदी की दर्जनों समर्पित संस्थाएँ - चाहे वे उत्तर भारत की हों या दक्षिण भारत की, निरंतर सक्रिय बनी रहीं।

विश्वभाषा हिंदी : व्याप्ति एवं स्वीकृति

- डॉ. रणजीत साहा

भारत जैसे बहुभाषिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक देश ने अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही केंद्र और विभिन्न राज्यों की भाषाओं के साथ समुचित संतुलन एवं तालमेल बनाए रखा। हिंदी की केंद्रीय स्थिति, निश्चय ही बहुभाषिक भारत की बहुसंख्यक आबादी के बीच और हिंदीतर भाषा-भाषियों के बीच सीधे संवाद की भाषा के तौर पर रही है। यह संख्या सत्तर-बहत्तर प्रतिशत तक बढ़ गई है, ऐसा बताया जा सकता है। यानी दो-तिहाई से अधिक लोग हिंदी बोलते-समझते हैं। पठन-पाठन की दृष्टि से भी, भारत के एक सौ अस्सी विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर और इसके बाद हिंदी में शोध करने की उपयुक्त व्यवस्था है! संचार माध्यमों की प्रगति के कारण भी पूर्वांचल-अरुणाचल और मिज़ोरम तक तथा सुदूर उत्तर लेह लद्दाख आदि क्षेत्रों में हिंदी ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। तो भी, यह देखना ज़रूरी होगा कि एक सौ तीस करोड़ भारतवासियों में से, उपर्युक्त प्रतिशत के अनुसार, लगभग चालीस करोड़ आबादी तक हिंदी अभी भी अपनी पहुँच नहीं बना पाई है। और इस प्रश्न को भी संबोधित करने की ज़िम्मेदारी सरकार, शिक्षा व्यवस्था और हिंदी स्वैच्छिक संस्थाओं पर है।

हिंदी के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि इसे किसी भी हिंदीतर राज्य पर थोपा नहीं जाएगा और यह सच भी है। इसके दुष्परिणाम को हिंदी कई बार झेल भी चुकी है। और इसे अपने आगे बढ़ते क़दम को पीछे हटा लेना पड़ा है। हिंदी के प्रचार-प्रसार में जिन हिंदी सेवियों - महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, पुरुषोत्तम दास टंडन, केशवचंद्र सेन, विनोबा भावे, राजगोपालाचारी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि ने अपना जीवन सौंप दिया, उन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व और बाद में संख्या बल के आधार पर हिंदी को कभी ज़बरदस्ती थोपने का उद्यम नहीं किया। यही नहीं, जब 1937-38 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अति उत्साह में तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में अनिवार्य तौर पर लागू करना चाहा, तो स्थानीय लोगों का गुस्सा भड़क उठा। पुरुषोत्तम दास टंडन ने इस अवांछित घोषणा की शिकायत तत्काल महात्मा गांधी जी से की। कहा कि यह हिंदी की प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। भारत में प्रकाशित होने वाले कई अख़बारों ने इस घटना की आलोचना (निन्दा) की।

संपूर्ण भारत में हिंदी और हिंदीतर प्रदेशों में हिंदी की उपस्थिति के कमोबेश प्रतिशत अक्सर आँकड़ों द्वारा दर्ज किए जाते हैं। लेकिन भारतेन्दु युग और स्वाधीनता आंदोलन के दौर से ही इसे ‘राष्ट्रभाषा’, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘राजभाषा’ और फिर ‘संपर्क भाषा’ के तौर पर महिमामंडित, तो कभी तर्क-वितर्क द्वारा परिभाषित या सीमित किया जाता रहा है। एक ओर इसे ‘जनभाषा’ और ‘आम भाषा’ कहा गया, तो दूसरी ओर ‘विश्वभाषा’ कहकर गौरवान्वित किया जा रहा है। पिछली सदी में इसे उर्दू के बरक्स राजनीतिक रंग देते हुए सांप्रदायिक टकराव और दंगे तक खींचा गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, गठित राजभाषा आयोग, भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित अधिनियमों से जुड़े विवाद ने हिंदी अंग्रेज़ी के विरुद्ध अन्यान्य भारतीय भाषाओं के क्षेत्रीय अधिकारों और अस्मिता को चुनौती के तौर पर लिया। साथ ही, इसे बहुसंख्यक हिंदी भाषियों द्वारा अपना वर्चस्व लादने का राजनीतिक हथकंडा साबित कर पिछले दरवाज़े से थोपने का कुचक्र बताया गया। यह भी विडंबना ही रही कि जब-जब सांस्कृतिक ऐतिह्य सामाजिक सामरस्य और राष्ट्रीयता-जैसे प्रश्नों पर विमर्श किया जाता रहा, तब तक इसे क्षुद्र राजनीति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं से जोड़ कर देखा जाता रहा, परिणामतः हिंदी के उड़ान भरते पंख कतरे गए। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक भाषा-भाषियों के इस प्रायोजित टकराव से अगर सबसे अधिक लाभ किसी एक विदेशी भाषा को मिला तो वह थी - अंग्रेज़ी। इसकी जड़ों पर आज तक कोई मट्ठा नहीं डाल पाया।

बावजूद इन कठिनाइयों के, हिंदी की संघर्ष यात्रा अपनी समस्त गतिविधियों के साथ अबाध आगे बढ़ती रही। इस गतिशील यात्रा में, हिंदी की दर्जनों समर्पित संस्थाएँ - चाहे वे उत्तर भारत की हों या दक्षिण भारत की, निरंतर सक्रिय बनी रहीं। जहाँ तक भारतीयों और हिंदी जनमानस की बात है, उनके लिए हिंदी एक ही साथ राष्ट्रभाषा है, राजभाषा है और संपर्क भाषा भी है। यह संस्थागत शिक्षण का माध्यम है, तो आस्थागत मूल्यों का वाहक भी। यह एक ओर बाज़ार, विज्ञापन और विपणन की भाषा है, तो मनोरंजन, पर्यटन और तीर्थाटन की भाषा भी।

लेकिन जहाँ तक हिंदी के राजभाषा पद से जुड़े कार्य एवं दायित्व का प्रश्न है, यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार, सरकारी कामकाज में हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग के लिए वचनबद्ध है। संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत राजभाषा आयोग ही समस्त सरकारी संस्थानों और उपक्रमों के लिए समय-समय पर कार्यक्रम निर्धारित करता है; ऐसे आदेश भारत के राष्ट्रपति के निर्देशानुसार जारी किए जाते हैं, इसलिए इन्हें मानना आवश्यक होता है। लेकिन राजभाषा कार्यान्वयन के साथ लोगों का जुड़ाव भावनात्मक स्तर पर नहीं हो पाया है और यह सरकारी तंत्र का अंग मात्र बनकर रह गया है।

वस्तुतः हिंदी जिस भावभूमि पर विचरण करती है, वह उर्वर भी है और बंजर भी है। उसे शिक्षा प्रांगण और सरकारी परिसर तक सीमित नहीं किया जा सकता। हिंदी की बहुरूपी छवि कई प्रकार की वेशभूषा और साज-सज्जा में नज़र आती है। यह कहीं उच्चस्तरीय पाठ्यक्रम और अनुसंधान की भाषा है, तो कहीं ठेठ हाट-बाज़ार की भाषा है। विद्वत्-गोष्ठी की भाषा है, तो गहन विचार-विमर्श की भाषा है। यह रेहड़ी, ठेले और खोमचेवालों की भाषा है। यह प्रेम-पत्रों की भाषा है, तो प्रेमी-प्रेमिकाओं की स्वप्न भाषा; कहीं मंदिरों में भक्तों की अरज से जुड़ी है, तो कहीं कोठों और बाई जी के मुजरों की भाषा है। बंबइया फ़िल्मों की भाषा और गानों ने तो सारी दुनिया को दीवाना बना रखा है। इन फ़िल्मों, नाटकों और नौटंकियों की भाषा को न तो नाथा जा सका है और न बाँधा जा सका है।

लेकिन जब भी मानक और व्याकरण सम्मत भाषा की बात आती है, तो इसके संरचनात्मक स्वरूप और व्याकरणिक ढाँचे को सुव्यवस्थित एवं सुनिर्धारित करने के व्यक्तिगत तथा संस्थागत प्रयास किए जाते रहे हैं। नलिनी मोहन सान्याल, बाबूराम सक्सेना, कामता प्रसाद गुरु और किशोरी दास वाजपेयी आदि विद्वानों ने हिंदी की वर्तनी, लिपि, वाक्य रचना एवं भाषिक पदानुक्रम की समुचित और सम्यक व्याख्या की है। पंचानुनासिक व्यवस्था, संरचनात्मक गुण-दोष और अपवाद आदि पर विचार किया है। कहना न होगा, हिंदी अपने मानक एवं मुद्रित रूप में स्वीकृत व्याकरणिक नियमों का ही समुचित अनुपालन कर रही है।

यद्यपि नागरी लिपि के मानक स्वरूप को अभी तक हिंदी यथोचित ढंग से सुनिर्धारित नहीं कर पाई है। नागरी लिपि के अनन्य प्रशंसक एवं प्रवक्ता डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने जीवन के अंत में हिंदी की सर्वभारतीय स्वीकृति के लिए इसे रोमन लिपि में भी लिखे जाने का सुझाव दिया था। सुप्रसिद्ध अभिनेता और संस्कृतिकर्मी (इप्टा के सदस्य) बलराज साहनी ने बहुत पहले व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए हिंदी को रोमन में लिखे जाने का आग्रह ही नहीं किया, बल्कि इसके लिए अभियान भी छेड़ा था। ऐसा निर्णय उन्होंने बंबई फ़िल्म जगत की उन भाषाई सीमाओं को देखकर ही किया था, जहाँ इक्का-दुक्का हिंदीभाषी अभिनेता या सहकर्मी को छोड़कर, नब्बे फ़ीसदी से अधिक लोग रोमन लिपि में लिखे संवाद और दृश्यालेख का ही इस्तेमाल करते हैं। यहाँ एक रोचक प्रसंग का उल्लेख करना आवश्यक लगता है। फ़िल्म ‘संगम’ (1964) के नायक सुंदर (राजकपूर) अपने मित्र (राजेन्द्र कुमार) से हिंदी में अपनी प्रेमिका (वैजयंती माला) के लिए हिंदी में पत्र लिखवाता है और हिंदी में उत्तर पाकर राजेन्द्र कुमार से पढ़वाते हुए कहता है - ‘पंडितजी कहा करते थे कि हिंदी का ज्ञान बहुत ज़रूरी है’, ‘‘फ़िल्म का अंजाम सभी जानते हैं... ‘दोस्तों को कभी पत्रवाहक बनाते नहीं।’

भाषा और लिपि की इस बहस में एक महत्त्वपूर्ण संगोष्ठी का ज़िक्र ज़रूरी है, जो ‘उत्तर प्रदेश उर्दू-हिंदी कमिटी’ द्वारा आयोजित की गई थी, इसमें मैं भी एक सहभागी था। इस गंभीर चर्चा में जाने-माने फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी (सौ से ज़्यादा फ़िल्मों के संवाद लेखक) ने बताया कि आलेख (script) हो या संवाद (dialogue) - वे रोमन में ही लिखते रहे हैं और पिछले तीस-पैंतीस सालों में उन्हें कोई परेशानी पेश नहीं आई। इससे रोमन लिपि की व्यावहारिकता उजागर होती है। इस बारे में चेतन भगत और असगर वजाहत भी हामी भरते नज़र आते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से भारत भी विश्वभर में आई संचार क्रांति का प्रमुख भागीदार रहा है। दिन-ब-दिन अद्यतन होनेवाले कम्प्यूटर, मोबाइल, ऑनलाइन सुविधाएँ एवं संदेश, डिजिटल गजे़ट, गिज़्मों, नए-नए रूपाकारों और अवतारों में हमारे बाज़ारों और फिर हमारे घरों में प्रकट हो रहे हैं। इन विज्ञानी अवतारों की भाषा अंग्रेज़ी है और इनके संकेत, संदेश और संबोधन, रोमन लिपि द्वारा ही स्पष्ट होते हैं। भले ही इनके अन्वेषक देश-फ़्रांस, जर्मनी, चीन, कोरिया या ताइवान हों, संचार-संसार अंग्रेज़ी की रोमन लिपि के पंखों पर ही उड़ान भर रहा है। कम-से-कम इस मामले में इसे कहीं से चुनौती मिलने की संभावना नहीं है। अगर हिंदी को अपनी वैश्विक उपस्थिति को व्यापक स्तर पर स्थापित करना है, तो रोमन लिपि की उपादेयता को निस्संकोच एवं रचनात्मक ढंग से अपनाना होगा। लेकिन नागरी लिपि के लिए रोमन लिपि कोई भयावह भूत नहीं है। रोमन लिपि से हम सब परिचित हैं और इस कथन में भी पूरी सच्चाई नहीं है। लेकिन हमें रोमन लिपि से डटकर लोहा लेना होगा, जो फ़िलहाल संभव होता नहीं दिखता। पिछले चालीस-पचास सालों से उर्दू लिपि (ख़ुशख़त) में लिखित अदब (साहित्य) रोमन में नहीं, बल्कि नागरी में लिप्यंतरित होकर हिंदी के माध्यम से हिंदी और ग़ैर-हिंदी पाठकों के बीच पढ़ा जा रहा है। उर्दू अदीबों का मानना है कि इस तरह उर्दू हिंदी के द्वारा ही सबसे ज़्यादा फैल रही है और दोनों के बीच अदबी दूरी मिटी है।

संवाद एवं संप्रेषण के अलावा हिंदी ने भारत की अनुपम विरासत और कलात्मक प्रस्तुतियों के साथ रूपंकर निर्मितियों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता विकसित कर ली है। निस्संदेह यह संपूर्ण भारत के राज्यों का प्रदेश है, लेकिन हिंदी ने समग्र तौर पर धर्म, संस्कृति, योग, कला (दृश्य-अभिनय-रंगकर्म) संगीत, यहाँ तक कि फ़िल्मों द्वारा भी, संपूर्ण विश्व के लिए भारत के प्रति एक मोहक आकर्षण पैदा किया है। यहाँ के वैविध्यपूर्ण पर्यटन स्थल, रंगारंग उत्सव और त्यौहार, मेले और ज़ायकेदार व्यंजन भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। भारत आने के लिए वे विशेष तौर पर हिंदी सीखने और समझने की तैयारी करते हैं और वार्तालाप पुस्तिका (द्विभाषिक) साथ रखते हैं।

भारत में दूरदर्शन और अनेक निजी चैनलों द्वारा प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों ने हिंदी प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व भूमिका अदा की है। पिछले बीस वर्षों से ‘कौन बनेगा करोड़पति’ (के.बी.सी.) और इसके प्रस्तोता महानायक अमिताभ बच्चन ने न केवल भारत के बल्कि विदेशों के असंख्य दर्शकों को इस अनूठे कार्यक्रम से जोड़े रखा है। इसी क्रम में एक और जनप्रिय कार्यक्रम का हवाला देना अन्यथा न होगा और वह है ‘कपिल शर्मा शो’। मैंने अपनी विदेश यात्रा के दौरान रूस, बल्गारिया, रोमानिया, जापान आदि देशों में भारतीय, विशेषकर हिंदी के रिकॉर्डड कैसेट और डिस्क आदि से कक्षाओं एवं कार्यशालाओं में हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों को पाठ तैयार करते देखा है। वहाँ के टेलीविजन पर भारतीय फ़िल्मों को, उस देश की भाषा में ‘डब’ कर या संवाद पट्टी के साथ दिखाना आम बात है।

भारत के संदर्भ में, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाभाषियों को अंग्रेज़ी सिखाने वाली एक अत्यंत लोकप्रिय प्रविधि है, ‘रैपिडैक्स हिंदी-अंग्रेज़ी कोर्स’। इस स्वयंसेवी पुस्तिका, जिसमें रिकॉर्डड पाठ का कैसेट भी संलग्न होता है, पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय है। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के करोड़ों दर्शकों की तरह इसके भी करोड़ों पाठक हैं। इसके प्रकाशक का कहना है कि उसके तीन-चार प्रेस केवल इसी पुस्तक के विभिन्न भाषाई (तमिल, तेलुगु, गुजराती, मराठी, बाङ्ला, पंजाबी आदि) संस्करण दिन-रात छापते रहते हैं। इस पुस्तक का उद्देश्य तो वस्तुतः अंग्रेज़ी सिखाना है, लेकिन प्रकारांतर से यह उन्हें हिंदी या अपनी मातृभाषा सीखने में भी सहायता करती है। लगभग ढाई सौ पृष्ठों वाली यह द्विभाषिक पुस्तक स्नातक स्तर के पाठकों को जीवनोपयोगी पाठ यथा, बैंक, बाज़ार, दफ़्तर, बस टर्मिनल, स्टेशन पर्यटन, पत्र-व्यवहार आदि से परिचित कराती है।

हालाँकि भारतीय बाज़ारों में हिंदी से विदेशी भाषाएँ सिखानेवाली कई छोटी-बड़ी पुस्तकें उपलब्ध हैं। भारत सरकार के अधीनस्थ केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने विदेशियों को हिंदी सिखाने और हिंदी भाषियों को विदेशी भाषाएँ सिखाने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों के साथ कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें (द्विभाषिक) प्रकाशित की हैं। इसी तरह केन्द्रीय हिंदी संस्थान (भारत सरकार) अपने मुख्यालय आगरा (उत्तर प्रदेश) समेत भारत के अन्यान्य राज्यों में स्थित विभिन्न शाखाओं द्वारा अंग्रेज़ी के साथ विदेशी भाषाओं के कार्यक्रम नियमित तौर पर चला रहा है। भारत के कई विश्वविद्यालय यथा - दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, कोलकाता वि.वि., विश्वभारती शांतिनिकेतन आदि में प्रमुख विदेशी भाषाओं के विभाग बहुत पहले से प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा, डिग्री वग़ैरह के साथ शोध संबंधी पाठ्यक्रम का विधिवत् संचालन कर रहे हैं।

वैश्विक भाषा की अहमियत बताने और जताने के जितने पैमाने हो सकते हैं, हिंदी उन पर वर्षों से खरी उतर चुकी है। विश्व की सर्वाधिक बोली और समझी जानेवाली भाषाओं में इसका स्थान चौथा है। वैश्वीकरण और उदार बाज़ारवाद के चलते हिंदी आज कई देशों में अपने पाँव बड़ी मज़बूती से रख चुकी है। ऐसे कई देश हैं, जो भारत के साथ अपना कारोबार बढ़ाना चाह रहे हैं। विश्व की पाँचवीं अर्थव्यवस्था बनने का यह संकल्प तभी पूरा हो सकता है, जब संबद्ध देशों के साथ हमारी कारोबारी समझ और भी बेहतर ढंग से स्थापित हो सके। इस मामले में केवल भाषा ही सहायक हो सकती है। अब केवल भाषिक, सांस्कृतिक या शैक्षणिक स्तर पर ही नहीं, व्यावसायिक स्तर पर उन भाषाओं (यथा, चीनी, जापानी, कोरियाई, थाई, सिंहली) को सीखने और उन देशों में जाने की होड़-सी नई पीढ़ी में लग गई है। भारत के छोटे-छोटे शहरों में इन भाषाओं को सिखाने वाले कोचिंग सेंटर खुल गए हैं। अपनी नेपाल की यात्राओं के दौरान मैंने कई शहरों, बल्कि क़स्बों में उक्त भाषाओं को अल्पावधि में सिखाने का दावा करने वाले कई कोचिंग सेंटर देखे। नेपाल जाकर किसी भी हिंदी भाषी को यह जान पड़ता है कि वह भारत के ही किसी अंचल में है। हिंदी वहाँ खूब बोली और समझी जाती है। दूसरे, नेपाली की लिपि भी नागरी है, इसलिए वहाँ लगे साइनबोर्ड या सूचना पट मानो हिंदी में ही लिखे प्रतीत होते हैं। क्षेत्रीय प्रभाव के कारण वहाँ जो लोग हिंदी में बातें करते हैं, उसमें नेपाली का पुट होता है।

हिंदी, जैसा कि पहले बताया गया, न केवल भारत में बल्कि भारत के बाहर मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, गयाना आदि देशों में पहुँची, तो उन देशों के विशिष्ट भाषाई स्वरूप में रच-बस गई। मॉरीशस में जहाँ उसे क्रियोली भाषा की संरचना के साथ भोजपुरिया हिंदी में ढालना पड़ा, वहाँ सूरीनाम में सरनामी हिंदी के साथ। फ़िजी की हिंदी पिछले डेढ़ सौ वर्षों में ‘फ़िजी हिंदी’ या ‘फ़िजीबात’ की स्वीकृति पा चुकी है। ट्रिनिडाड और टोबेगो में ‘भोजपुरी हिंदी’ की संज्ञा के साथ हिंदी अपनी अलग पहचान बना चुकी है। हिंदी में स्वयं को सम और विषम परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की अनन्य क्षमता है। भारत जैसे विशाल देश में ही हिंदी के अलग-अलग कई संस्करण हैं। संस्कृतनिष्ठ हिंदी को जहाँ व्यंग्य से ‘रघुबीरी हिंदी’ कहा जाता है, वहाँ आमफ़हम हिंदी को ‘चलताऊ हिंदी’। स्थानीयता के आग्रह और प्रभाव के चलते कलकतिया, बंबइया, बिहारी, हिमाचली, नेपाली, पहाड़िया, दक्कनी, भोपाली जैसी क्षेत्रीय शैलियाँ पचासों साल से चल रही हैं। हिंदी की अबाध यात्रा के ये सारे भाषिक संस्करण सहयात्री हैं। अगर रूपक की भाषा में कहा जाय, तो इन समस्त हिंदियों की शक्ति पाकर ही शक्तिस्वरूपा दशभुजा देवी दुर्गा निर्मित हुई हैं। लेकिन यह किसी की संहारिणी नहीं, बल्कि अखिल मातृस्वरूपा है, जो सदैव अपनी भारतीय संतति और संस्कृति की समृद्धि चाहती हैं।

इस आलेख में मैं अपनी एक विशेष चिंता, दूसरे शब्दों में आकांक्षा का उल्लेख करना चाहूँगा, जो संयुक्त राष्ट्र संघ की एक स्वीकृत भाषा के तौर पर हिंदी को सम्मिलित किए जाने से संबंधित है। वर्ष 1977 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के उद्बोधन और 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंह राव के हिंदी अभिभाषण के आलोक में यह प्रश्न अन्यथा नहीं होगा कि भारतीय संसद तथा अन्यत्र भी कई बार आश्वस्त किए जाने के बाद भी, विश्व की अन्य भाषाओं (अंग्रेज़ी, चीनी, जापानी, रूसी, स्पेनी एवं अरबी) के साथ, विश्व की चौथी सबसे ज़्यादा बोली जानेवाली हिंदी को स्थान क्यों नहीं मिला! एक संगोष्ठी के दौरान मुझे अमेरिका जाने और न्यूयॉर्क में ठहरने का सुयोग प्राप्त हुआ था। मैं न्यूयॉर्क में जिस जगह ठहरा था, वहाँ से संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर दूर था। मैंने वहाँ दो बार परिभ्रमण के दौरान जनसंपर्क अधिकारी से हिंदी की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहा, लेकिन मुझे निराशा ही हाथ लगी। चूँकि भारत में यह प्रचारित किया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी के औपचारिक प्रवेश से संबंधित कार्रवाई की जा चुकी है और इसके लिए सौ करोड़ डॉलर की राशि आबंटित की गई है। स्थिति जो भी हो, हिंदी को गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के संकल्प को पूरा करने की दिशा में भारत सरकार निश्चय ही सक्रिय और सचेष्ट रहेगी, क्योंकि इससे हिंदी का वैश्विक परिदृश्य अत्यंत सुदृढ़ होगा।

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