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रचनाः ब्रह्म दत्त शर्मा
तिथिः 05 जून 2021
श्रेणीः  कहानी

रचना परिचयः

हमारे स्कूल पहुँचने की खबर गाँव में आग की भाँति फैल गई थी। गाँव वासी यूँ भागे चले आए, मानो पोलिंग की बजाय, हम कोई नौटंकी पार्टी हों और गाँव में तमाशा दिखाने वाले हों। वैसे हमारे देश में चुनाव तमाशे से कम हैं भी नहीं। बड़ों की देखा-देखी बच्चे भी कौतुहलवश दौड़े आए थे। वे हम पाँचों को टकटकी लगाए घूरते रहे और फिर हममें कुछ भी विशेष न पाकर निराश लौटने लगे।

पीठासीन अधिकारी

- ब्रह्म दत्त शर्मा

हमारे स्कूल पहुँचने की खबर गाँव में आग की भाँति फैल गई थी। गाँव वासी यूँ भागे चले आए, मानो पोलिंग की बजाय, हम कोई नौटंकी पार्टी हों और गाँव में तमाशा दिखाने वाले हों। वैसे हमारे देश में चुनाव तमाशे से कम हैं भी नहीं। बड़ों की देखा-देखी बच्चे भी कौतुहलवश दौड़े आए थे। वे हम पाँचों को टकटकी लगाए घूरते रहे और फिर हममें कुछ भी विशेष न पाकर निराश लौटने लगे। स्कूल गेट पर खड़ी कुछ निम्नवर्गीय महिलाएँ भी हमें किसी अजूबे की भाँति देखे जा रही थीं। हाथ में दरांती लिए वे शायद खेत में घास काटने जा रही थीं। किसी ने उन्हें डाँटा और वे ठिठकती हुई आगे बढ़ गईं।

सरपंच का चुनाव लड़ रहे एक उम्मीदवार के समर्थक जल्दी ही दूध, मिठाई, पकौड़े आदि लेकर हाज़िर हो गए। गोया कि उन्होंने पहले ही पूरा इंतज़ाम कर रखा था। फिर से लगा जैसे चुनाव की बजाय हम किसी बारात में आए हों। लोकसभा और विधानसभा के विपरीत, जहाँ पोलिंग पार्टियों को कई बार खाना भी नसीब नहीं होता, पंचायती चुनाव में दामाद की भाँति खूब आवभगत होती है। यह उसी की पहली बानगी थी।

स्कूल प्रांगण में सर्दियों की गुनगुनी व सुनहली धूप खिली थी। खा-पीकर हम सुस्ताने के लिए चारपाइयों पर लेट गए। हमारे पी.ओ. यानी पीठासीन अधिकारी शीघ्र ही खर्राटे भरने लगे। साँस लेने से उनका बाहर को उभरा हुआ पेट ऊपर-नीचे हिलता थोड़ा अजीब लग रहा था। वे सामान्य कद के मोटे-ताज़े व्यक्ति थे। चेहरे पर बारीक और नुकीली मूँछें थीं। आगे से उनकी खोपड़ी गंजी थी, जिसे उन्होंने लम्बे बालों से छुपाने की काफ़ी हद तक सफल कोशिश की थी। उन्हें इस कदर सोता देख सभी हैरान थे, क्योंकि कल के चुनाव की तैयारी का काम इतना ज़्यादा था कि देर रात से पहले निपटने वाला न था। सुरेश कुमार जी, जो टीम में नंबर दो की हैसियत रखते थे, मुस्कुराए "अरे, ये साहब तो ऐसे सोने लगे मानो चुनाव ही निपट गया हो। पहली बार इतना बेफ़िक्र और लापरवाह अफ़सर देख रहा हूँ, वरना चुनाव की चिंता में परिजाइडिंग को दोपहर छोड़ रात में भी ठीक से नींद नहीं आती।”

राधेश्याम जी को गहरी नींद से जगाया गया। फिर हम बूथ-सेटिंग में लग गए। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी, लेकिन उम्मीदवारों के समर्थक वहीं डटे रहे। वे अपनी आवभगत, बातों और हाव-भाव से हमें प्रभावित करने में लगे थे। उनकी अभी भी वही पुरानी मान्यता थी कि चुनावी हार-जीत में मतों के अलावा पोलिंग पार्टी का 'आशीर्वाद' भी ज़रूरी होता है। हम चाहते थे वे चुपचाप हमें अपना काम करने दें, किंतु राधेश्याम जी उन्हें श्रोता के रूप में पाकर धन्य हो गए थे।

बेशक ग्रामीणों के लिए सरपंच का चुनाव ही सबसे महत्त्वपूर्ण था, किंतु वोट तो पंच, ब्लॉक-समिति और ज़िला परिषद के लिए भी डलने थे। दो मतों के लिए मशीन और दो में मतपत्र का प्रयोग होने से मतदान प्रक्रिया काफ़ी जटिल थी। मतपत्रों पर मोहर लगाकर उनमें वार्ड-संख्या, बूथ-संख्या, ब्लॉक-समिति-संख्या आदि भी भरा जाना था, जो एक लंबा और उबाऊ कार्य था। बूथ-सेटिंग के बाद हम उसे ही निपटा रहे थे। सर्दियों के दिन छोटे होते हैं; अतः जल्दी ही दिन ढल गया। इसी क्षण का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे एक उम्मीदवार के समर्थक शराब, कबाब आदि लेकर उपस्थित हो गए।

देखते ही राधेश्याम जी ने नाक-भौंह सिकोड़ी "भैया मैं तो सिर्फ़ बढ़िया ब्रांड ही पीता हूँ।"

हमें जैसे विश्वास ही नहीं हुआ, क्योंकि सुबह से राधेश्याम जी लगातार दोहराए जा रहे थे कि गाँव में जाकर हम बिल्कुल निष्पक्ष रहेंगे। न ही किसी से कुछ 'खाएँगे' और न ही 'पीएँगे' और अब वे स्वयं ही ब्रांड की माँग कर रहे थे। हालाँकि ग्रामीण उन्हें खुश करने की खातिर चिड़िया का दूध भी लाने को तैयार थे।

राधेश्याम जी का मनपसंद ब्रांड आ चुका था, जिसकी गंध में काम करना उनके लिए मुश्किल हो गया "अरे, कागज़-वागज़ छोड़ो! बाद में पूरे होते रहेंगे। आखिर करतारपुर के चौधरियों की मेहमाननवाज़ी हमें कब नसीब होनी है!"

विनोद सेठी को ताज्जुब हुआ "सर, पहले कुछ काम तो निपट जाए!"

राधेश्याम जी बेफ़िक्री से बोले "अरे, निपट जाएगा! क्यों टेंशन लेते हो? मैंने आज तक इलेक्शन ही करवाए हैं।"

जब ऑफ़िसर ही चाह रहे, फिर बाकियों को भी क्यों चिंता होने लगी। शीघ्र ही सुरेश कुमार और संदीप चौधरी भी उनके साथ बैठकर जाम छलकाने लगे। मुफ़्त का माल देखकर मुझे और विनोद सेठी को भी खूब अफ़सोस हो रहा था, किंतु चाहकर भी उनमें शामिल नहीं हो सकते थे। दोनों की ताज़ा-ताज़ा नौकरी लगी थी और अभी हम पर आदर्शवाद कुछ ज़्यादा ही हावी था। दूसरा, चुनावी रिहर्सल के दौरान अधिकारियों ने भी खूब डराया-धमकाया था “यदि पोलिंग पार्टी का कोई भी सदस्य बूथ पर शराबनोशी करते पकड़ा गया, तो उसके खिलाफ़ सख़्त कार्यवाही की जाएगी।” न जाने क्यों हम कुछ ज़्यादा ही डर गए थे, किंतु वे तीनों ऐसी धमकियों को एक कान से सुनकर दूसरे से बाहर निकालने वाले ‘अनुभवी’ और ‘पुराने’ लोग थे।

उन्हें दावत का लुत्फ़ उठाते, ज़ोर-ज़ोर से बतियाते और हँसते देख, भला हमसे भी कहाँ काम होने वाला था? कागज़ों का पुलिंदा एक कोने में समेटकर हम गाँव में टहलने निकल पड़े।

लगभग घंटे भर बाद वापस आए, तो राधेश्याम जी के इर्द-गिर्द अच्छी खासी भीड़ जुट चुकी थी। बूथ की सुरक्षा में तैनात सिपाही भी अब बहती गंगा में हाथ धो रहे थे। खाते-पीते भी राधेश्याम जी का प्रवचन किसी धर्मगुरु की भाँति लगातार जारी था। वे चुनाव, राजनीति, खेती-बाड़ी, खेल, फ़िल्म आदि पर धाराप्रवाह बोले जा रहे थे। श्रोता मंत्रमुग्ध बैठे सुन रहे थे। उनके इस एकालाप के बीच ही हम खाना खाने बैठ गए।

राधेश्याम जी खाना देखते ही बोले "भैया, स्लाद वगैरह तो लाए ही नहीं।"

गाँव में रात को ऐसी चीज़ें भला कहाँ उपलब्ध होती हैं, फिर भी बेचारों ने जैसे-तैसे फटाफट इंतज़ाम कर दिया। सलाद आते ही उनकी दूसरी फ़रमाइश आ गई " भैया, अचार और हरी मिर्च भी ले आते।" फिर से एक लड़के को दौड़ाया गया। उनकी हरकतों पर हम शर्मिंदा थे, परंतु वे बेफ़िक्र थे। मानो पीठासीन अधिकारी की बजाय वे किसी रियासत के नवाब हों और अपनी सेवा करवाने का उन्हें नैतिक व कानूनी अधिकार प्राप्त हो।

खाने के बाद हम बचा हुआ कार्य निपटाने की तैयारी में थे, किंतु राधेश्याम जी की मंशा कुछ और ही थी "मुझे अब घर जाना होगा। मेरी माँ की तबियत ज़्यादा खराब है।"

हमारे साथ-साथ सुरक्षाकर्मियों ने भी उन्हें आश्चर्य से घूरा। पीठासीन अधिकारी को रात में पोलिंग बूथ छोड़ने की इजाज़त ही नहीं होती। ठीक-ठाक चुनाव निपटाने की चिंता में डूबे किसी अधिकारी को ऐसा ख्याल तक भी नहीं आता और ये जनाब बिना कोई कामकाज निपटाए घर जाने की फ़िराक में थे।

हमने विरोध किया तो बोले "यार, मजबूरी भी तो कोई चीज़ होती है।"

कोई भी उनसे सहमत नहीं था। हमें संतुष्ट न होते देख तसल्ली देने लगे "आप ख्वाहमख्वाह टेंशन ले रहे हैं। देखना सुबह चार बजे आकर मैं ही आपको जगाऊँगा। जब तक आप नहा-धोकर तैयार होंगे, मैं मॉक-पोल के सारे कागज़ तैयार कर चुका होऊँगा। अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी समझता हूँ।"

राधेश्याम जी के अब तक के व्यवहार को देखते हुए उन पर यकीन करना मुश्किल था, किंतु उन्हें रोकना हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर था। दूसरा, हो सकता है उनकी माता जी सचमुच में ही बीमार हों, वरना यूँ रात में पन्द्रह किलोमीटर दूर जाने का रिस्क कौन उठाएगा?

हालाँकि संदीप चौधरी हमसे इत्तेफ़ाक नहीं रखता था " यार, हम एक झूठे और चालू आदमी के साथ फँस गए हैं। मुझे नहीं लगता यह कल भी ठीक-ठाक चुनाव करवा पाएगा!"

किसी ने उनका समर्थन नहीं किया, परन्तु सभी को कल की चिंता सताने लगी थी।

रात को सोने के लिए सबकी चारपाइयाँ एक बड़े कमरे में बिछा दी गई थीं। मुझे तो पहले ही अनजान जगह पर नींद नहीं आती, दूसरा रही-सही कसर एक सिपाही के खर्राटों ने पूरी कर दी। उसकी कभी हेलीकॉप्टर उड़ाने और कभी ट्रेन की सीटी बजाने की आवाज़ों के बीच रात दो बजे के बाद ही मेरी आँख लगी होगी। सुबह पौने पाँच बजे अलार्म कर्कश आवाज़ में बज उठा। मेरा ठंड और सुस्ती में बिल्कुल भी उठने का मन नहीं था, किंतु चुनावी ड्यूटी में रियायत की कोई गुंजाइश ही नहीं होती।

पोलिंग एजेंट निर्धारित समयानुसार ठीक छह बजे पहुँच चुके थे। हम भी नहा-धोकर तैयार थे, किंतु हमारे पी.ओ. साहब नदारद थे। हम बार-बार उन्हें फ़ोन मिलाते, किंतु वे उठा ही नहीं रहे थे। आखिर वही हुआ जिसका अंदेशा था। हमारी बेबसी को एजेंट्स भी सवालिया नज़रों से घूर रहे थे। कोई चारा न चलता देख अंततः सुरेश कुमार जी ने ही मॉक-पोल की कमान संभाल ली। यह एजेंटों को आश्वस्त करने के लिए किया जाता है कि मशीन ठीक-ठाक काम कर रही है और इसमें पहले से कोई वोट मौजूद नहीं है। मॉक-पोल निपटाकर मशीन को सील किया जाना था, जिसे सिर्फ़ पीठासीन अधिकारी ही कर सकता था; क्योंकि उनके कई जगह दस्तखत होने थे। वक्त मुट्ठी से रेत की भाँति फिसलता जा रहा था और राधेश्याम जी का दूर-दूर भी नामोनिशान न था। फ़ोन तो वे उठा ही नहीं रहे थे। पौने सात बजे ही बाहर उत्साहित मतदाताओं की लाइन लगनी शुरू हो गई। इनमें ज़्यादातर ऐसे शराबी थे, जिन्हें पिछले दो महीने से सिर्फ़ वोट के लिए ही पिलाई जा रही थी। उम्मीदवार उन्हें सुबह-सुबह निपटाकर कम से कम आज का खर्च और दिन भर चलने वाले ड्रामे से मुक्ति चाहते थे।

सात बजते ही सब ने शोर मचाना शुरू कर दिया। किसी को सुबह-सुबह वोट डालकर कहीं दूर जाना था, तो किसी की कोई अन्य मजबूरी थी। मानो सभी ज़रूरी काम उन्हें अभी याद आ गए थे। समय होने पर भी वोटिंग शुरू न होने पर वे बेहद क्रोधित और लड़ने के मूड में थे। ऊपर से यह एक संवेदनशील बूथ था और पिछले चुनाव में पोलिंग पार्टी को पुलिस ने बड़ी मुश्किल से पिटने से बचाया था। इस वजह से हम अत्यंत डरे और घबराए हुए थे। हमारे हाथ-पाँव फूले थे और चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थी।

ऐसे में उच्च अधिकारियों को बतलाने के अलावा हमारे पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। वैसे तो उन्हें पहले ही अवगत करा देना चाहिए था, किन्तु न बतलाए जाने का भी एक ख़ास कारण था। प्रशासन चुनाव को बेहद गंभीरता से लेता है। अधिकारी राधेश्याम जी के खिलाफ़ तुरंत कार्यवाही करते हुए उन्हें सस्पेंड भी कर सकते थे। हो सकता है वे सचमुच ही किसी मुसीबत में फँस गए हों और बाद में हमें अफ़सोस हो।

अंततः धर्म-संकट से मुक्त होकर जैसे ही सुरेश कुमार जी ने सुपरवाइज़र को फ़ोन मिलाया, राधेश्याम जी अचानक प्रकट हो गए। मानो कहीं अदृश्य में छिपे इसी क्षण की ही प्रतीक्षा कर रहे हों।

आते ही बोले "सॉरी, माँ की तबियत रात अचानक ज़्यादा बिगड़ गई थी। अभी-अभी उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाकर आया हूँ। जल्दबाज़ी में मोबाइल घर ही छूट गया था। पता नहीं ज़िंदा भी बचेगी या नहीं!"

सुनकर हमारी नाराज़गी काफ़ी हद तक दूर हो गई थी। ग्रामीण तो उलटा गुस्सा छोड़कर उनसे सहानुभूति जताने लगे। सिर्फ़ संदीप ही मंद-मंद मुस्करा रहा था।

फटाफट मशीनों को सील करके बची हुई कागज़ी कार्यवाही पूरी की गई। साढ़े सात बजे तक ही मतदान शुरू हो पाया।

चुनाव-प्रक्रिया काफ़ी लंबी और उलझी हुई थी, क्योंकि एक मतदाता द्वारा चार मत डाले जा रहे थे। सर्वप्रथम मतदाता का वोटर लिस्ट में नाम ढूँढना, वोटर कार्ड चेक करना, रजिस्टर में दस्तखत या अंगूठा लगवाकर वोटर स्लिप जारी करना, उँगली पर स्याही लगाना, पंच के मतपत्र पर भी दस्तखत या अंगूठा लगवाना और फाड़कर देना, स्याही लगाकर मोहर थमाना, सरपंच की वोट के लिए कंट्रोल यूनिट का बटन दबाना जैसे अनेक काम थे। इतना कुछ करने पर भी सिर्फ़ दो ही वोट डलते थे और बाकी बची दो के लिए भी कमोबेश यही प्रक्रिया दोहराई जाती थी। मतदाताओं में काफ़ी अनपढ़, पर्दा करने वाली औरतें, बुज़ुर्ग और शराबी थे। उन्हें बार-बार समझाना पड़ता, जिससे वोटिंग में कुछ ज़्यादा ही वक्त लग रहा था। कहने को तो सात सौ ही वोटर थे, किंतु वास्तव में अठाईस सौ वोट पोल होने थे। मतदाताओं की लम्बी कतार रोककर हमने फटाफट दोपहर का खाना खाया और शाम पाँच बजे तक हमारी गर्दन भी सीधी नहीं हुई थी।

हम चारों ने अपनी-अपनी सुविधानुसार काम बाँट रखा था। राधेश्याम जी पर कागज़ पूरे करने की ज़िम्मेदारी थी, किंतु वे किसी खूंटे से बंधकर बैठने वाले प्राणी न थे। काम निपटाने की बजाय वे भीतर-बाहर डोलते हुए ग्रामीणों से लगातार बतियाए जा रहे थे। वोटिंग के दौरान एजेंटों के बीच तीखी झड़पें भी हो रही थी। राधेश्याम जी न सिर्फ़ उन्हें समझाते, बल्कि ग्रामीण भाईचारे पर एक अच्छा-खासा भाषण भी पिला देते। सुन-सुनकर हमारे साथ-साथ एजेंट भी पक चुके थे। कई बार समझाते-समझाते राधेश्याम जी उनसे लड़ भी पड़ते। हम अपना काम छोड़कर बीच-बचाव करते और उन्हें चुपके से संवेदनशील बूथ होने की दुहाई देते, परन्तु वे अपने बातूनीपन के हाथों मजबूर थे। कागज़ पूरा करने की याद दिलाने पर लापरवाही से कहते- "अरे, निपटा लूँगा! क्यों टेंशन लेते हो?"

शाम पाँच बजे मतदान समाप्त हो गया। एजेंटों को छोड़कर बाकी सभी को सुरक्षाकर्मियों ने चारदीवारी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। हम फटाफट काम निपटाने में लग गए। सबसे पहले ब्लॉक-समिति की मतपेटी और ज़िला परिषद् की वोटिंग मशीन को सील किया गया, क्योंकि उनकी मतगणना बाद में कहीं और की जानी थी। फिर पंच की मतपेटी को उलटा कर उसमें से मतपत्र बाहर निकाले। उन्हें वार्ड के अनुसार अलग-अलग करके गिना और पंचों के परिणाम घोषित कर दिए। उसके बाद सरपंच की बारी आते ही एजेंटों की धड़कनें बढ़ गई। उनके चेहरों पर चिंता व तनाव साफ़ झलकता था। मशीन ने दो मिनट में ही एक उम्मीदवार को चौदह मतों से विजयी घोषित करके अपना फ़ैसला सुना दिया। विजेता पक्ष के एजेंट खुशी से उछलते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाने लगे, तो हारे हुओं के चेहरों पर मुर्दिनी छा गई। राधेश्याम जी ने नवनियुक्त पंचों व सरपंचों को बुलाकर जीत के सर्टिफ़िकेट थमा दिए। सरपंच ने सर्टिफ़िकेट लेते ही इनाम के तौर पर पाँचों सदस्यों के लिए खुशी-खुशी पाँच हज़ार रूपये राधेश्याम जी को पकड़ा दिए।

परिणाम घोषित करते-करते सात बज गए थे। अब फटाफट बाकी काम निपटाकर हमें यहाँ से जल्द से जल्द रवाना होना था, परंतु कागज़ देखते ही सुरेश कुमार जी परेशान हो उठे। खफ़ा होकर बोले "सर, सभी फ़ॉर्म खाली पड़े हैं! आखिर सुबह से आप क्या कर रहे हैं?"

वे हमेशा की भाँति निश्चिंत थे "मैं तो दिन-भर ग्रामीणों को शान्त करने में ही उलझा रहा, वरना उनके लड़ाई-झगड़े के बीच कभी भी इलेक्शन पूरा नहीं होने वाला था। कागज़ भी पूरे हो जाएँगे। क्यों टेंशन लेते हो?"

उनसे उलझने की बजाय हम फ़ॉर्म भरने बैठ गए। न जाने कितने-कितने फ़ॉर्म और लिफ़ाफ़े थे। मॉक-पोल का सर्टिफ़िकेट, चुनाव के आरंभ और समापन का सर्टिफ़िकेट, मशीन और मतपेटी सील करने का सर्टिफ़ीकेट, मशीन की बैटरी निकालने व 'क्लोज़' बटन बंद करने का सर्टिफ़िकेट। इतना ही नहीं पोलिंग एजेंटों से बैंक लोन लेते वक्त की भाँति जगह-जगह हस्ताक्षर लिए जाने थे। टेंडर वोट व चैलेंज वोट का लेखा-जोखा; पेपर सील, स्ट्रिप सील, स्पेशल टैग के अलग-अलग फ़ॉर्म और लिफ़ाफ़े आदि भी थे। इनमें से कुछ लिफ़ाफ़े लाख से सील करने थे, कुछ गोंद से चिपकाने थे और कुछ खुले ही रखने थे। इसके अलावा हर दो घंटे बाद मतदान प्रतिशत, दिव्यांगों, स्त्री व पुरुष मतदाताओं की अलग-अलग संख्या, जीते-हारे उम्मीदवारों के मतों का लेखा-जोखा, जैसी सैकड़ों अन्य सूचनाएँ भी पी.ओ. डायरी में भरी जानी थी। बहुत से फ़ॉर्मों का कहीं कोई उपयोग ही नहीं था; फिर भी उनके मौजूद होने का औचित्य समझ न आने से एक अलग ही परेशानी पैदा हो रही थी। इतने सारे कागज़ देखकर हमारे तो होश ही उड़ गए। उन्नीस सौ बावन के प्रथम चुनाव से शुरू हुए कागज़ तो अभी तक चल ही रहे थे, साथ में वोटिंग मशीन की वजह से असंख्य दूसरे और नए भी उनमें शामिल हो गए थे। कुल मिलाकर मतपेटियों और मशीनों के कागज़ों का एक अजीब घालमेल था, जो किसी को भी परेशान कर सकता था। ऊपर से हमारे पीठासीन अधिकारी सुभान अल्लाह!

अभी हमने थोड़ा-सा काम ही निपटाया था कि बस आकर हॉर्न बजाने लगी। पिछले तीन गाँवों की पोलिंग पार्टियाँ अपना काम निपटाए उसमें बैठी थी। उन्हें पहुँचा देखकर हमारी घबराहट, बेचैनी और खीझ कई गुणा बढ़ गई थी। चारों तरफ़ कागज़ बिखरे पड़े थे और हाथ-पाँव फूलने की वजह से हमें कुछ सूझ ही नहीं रहा था। सुरक्षाकर्मियों से हमारी हालत छुपी न थी। हमारे कहे बिना ही वे बस में बैठे एक पीठासीन अधिकारी को मदद के लिए बुला लाए।

दूसरे पीठासीन अधिकारी को देखकर हमें राहत मिली, लेकिन वे एक-एक फ़ॉर्म को देखते और हैरानी से पूछते "अरे अभी तक यह भी नहीं भरा?"

राधेश्याम जी बड़ी मासूमियत से पूछते "इसमें क्या भरा जाना था?"

थोड़ी देर बाद किसी अन्य कागज़ को देखकर कहने लगते "यार, इसे तो कल शाम ही भरकर सील कर देना चाहिए था!"

हमें अपने नकारापन पर शर्म आ रही थी।

अगले गाँवों में काम निपटाए, बस के इंतज़ार में बैठी पोलिंग पार्टियों के बार-बार फ़ोन आने लगे थे। हम 'निकम्मों’ का इंतज़ार वे क्यों करें? मदद करने आए पी.ओ. ने सुझाव दिया "अभी तो आपको बहुत टाइम लगना है। आप अपना सामान समेट लें और बाकी काम वहीं बैठकर आराम से पूरा करें।"

उनसे सहमत होने के अलावा हमारे पास कोई और चारा ही नहीं था।

सुरेश कुमार जी का घर करतारपुर से चार किलोमीटर दूर था। उन्होंने राधेश्याम जी को पहले दिन से ही पक्का कर रखा था कि वे इधर से इधर ही चले जाएँगे। राधेश्याम जी ने भी उन्हें खुशी-खुशी जाने की इजाज़त दे दी, मानो उनका सारा काम निपट गया हो या उन्हें मालूम ही न हो कि सबसे मुश्किल काम तो सामान जमा करवाना ही होता है।

हमें परेशान देखकर उन्होंने अपना तकियाकलाम दोहराया "क्यों टेंशन लेते हो? सब निपट जाएगा। मैं हूँ ना!"

सुरेश कुमार जी विदा लेते-लेते बोले "सर, मेरे हिस्से के हज़ार रुपये?"

फटाफट काम निपटाने के चक्कर में अपना इनाम तो हम भूल ही गए थे। राधेश्याम जी लापरवाही से बोले "अरे वे! .....वे!....वे तो मैंने उन्हें वापस भी कर दिए। हम किसी से बख्शीश क्यों ले? आखिर सरकार हमें इतनी तनख्वाह किसलिए देती है!"

सब उन्हें आश्चर्य और नाराज़गी से घूरने लगे। वापस करने होते तो लिए ही क्यों थे? दूसरा, वे शाम से हमारे साथ ही थे, फिर वापस कब और कैसे कर दिए?

गेट पर खड़ी बस में बैठे कर्मचारी अधीर और बेचैन थे। वे हम पर जल्दी करने के लिए चिल्ला रहे थे। राधेश्याम जी से उलझने का समय नहीं था; फिर ‘बख्शीश’ के लिए उलझना भी क्या?

हमसे पहले ही कलेक्शन सेंटर, जो एक कॉलिज में बना था, में बहुत-सी पोलिंग पार्टियाँ पहुँच चुकी थी। इससे पहले कि भीड़ और बढ़ जाए, बस में बैठी पार्टियाँ नीचे उतरते ही सामान जमा करवाने सरपट दौड़ पड़ी। उनकी देखा-देखी हम भी भागे, लेकिन कदम वहीं ठिठक गए। अपने कागज़ पूरे न होने का ख्याल आते ही हमें ऐसे रोना आया, जैसे मोर अपने पाँव देखकर रोता है। न जाने कागज़ कब पूरे होंगे, हर पल बढ़ती जाती भीड़ के बीच कब जमा होंगे और हम कब घर जा पाएँगे? सुरेश कुमार जी, जिन्हें थोड़ा-बहुत काम आता था, हमें बीच मझधार में छोड़कर पहले ही जा चुके थे।

एक बार फिर से कागज़ों को पूरा करना था। हालाँकि और काम करने की हिम्मत अब बिल्कुल भी बची न थी। हम पिछले सोलह घंटों से 'नॉन स्टॉप' चुनावी ड्यूटी कर रहे थे। स्कूल में मात्र छह घंटे की ड्यूटी करने वालों को इतना अधिक काम करने की आदत ही नहीं थी। शरीर और दिमाग बुरी तरह थके थे। ऊपर से रात को ठीक से न सो पाने की वजह से आँखों में नींद भरी थी। मन करता था बिना कुछ खाए-पिए बस यहीं लेटकर सो जाएँ, परंतु सामान जमा करवाए बिना किसी भी सूरत छुटकारा न था। जल्द जमा होने की कोई संभावना भी न थी, जिससे राधेश्याम के प्रति हमारी खीझ और गुस्सा चरम पर पहुँच गया था। उन्हें एकाध खरी-खरी सुना भी दी थी।

वहाँ बिछी कालीन पर सामान रखकर राधेश्याम जी फ़ॉर्म भरने लगे। भरकर वे संदीप और विनोद को थमाते। वे संबंधित लिफ़ाफ़ा ढूँढकर उसमें डाल देते और फिर मोमबत्ती से लाख गर्म करके उसे सील कर देते। हमारे आस-पास और भी पोलिंग पार्टियाँ बैठी अपना काम निपटा रही थी। हरे कालीन पर जली मोमबत्तियाँ ऐसे लग रही थी, मानो किसी ने अपने आँगन में दीवाली के सैकड़ों दिये एकसाथ जला दिए हों। चुनाव सचमुच ही लोकतंत्र पर्व मालूम हो रहा था।

थोड़ी देर बाद मालूम हुआ कि आसपास ज़्यादातर वे पार्टियाँ थीं, जिनके कागज़ों में जमा करवाते वक्त छोटी-मोटी कमी निकल आई थी। वे उन्हें फटाफट ठीक करके लिफ़ाफ़े दोबारा सील कर रहे थे, ताकि जल्दी जमा करवा सकें। हम तो अभी एक बार भी नहीं गए थे। राधेश्याम जी को देखते हुए कमियाँ निकलनी लाज़िमी थी। हो सकता है सबसे ज़्यादा हमारी ही हों, जिससे सबसे आखिर में निपटें। सोचकर ही घबराहट और खीझ होने लगती। आज तो बहुत बुरे फँसे।

राधेश्याम जी बार-बार किसी न किसी फ़ॉर्म पर अटक जाते। उन्हें न तो कुछ आता था और न ही उन्होंने सीखने की कोई कोशिश की थी। दूसरा उन्हें न आने की कोई फ़िक्र-चिंता, शर्म या अफ़सोस भी नहीं था। मैं आसपास किसी से पूछकर उन्हें बतलाता। मेरे बार-बार पूछने से पार्टियाँ तंग आकर मुझे जवाब ही नहीं दे रही थी, क्योंकि सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। इसलिए अब मैं आसपास को छोड़कर दूर बैठे एक जानकार पी.ओ. से पूछने चला गया, जिसमें कुछ ज़्यादा ही समय लग गया था।

मैं वापस लौटा तो राधेश्याम जी मौजूद नहीं थे। संदीप चौधरी और विनोद सेठी काफ़ी चिंतित और परेशान दिखाई दिए। उनका कागज़ों की तरफ़ कोई ध्यान ही नहीं था। मैंने घबराकर वजह जाननी चाही तो बोले “एक बुरी खबर है! अभी-अभी राधेश्याम जी की माँ की मृत्यु हो गई!”

अप्रत्याशित खबर सुनकर मुझे झटका लगा। राधेश्याम जी के लिए दुख और चिंता हुई।

संदीप चौधरी एक अलग ही पश्चाताप में डूबा था “यार, मैं कल से ख्वाहमख्वाह उन पर शक कर रहा था। हम भी कई बार किसी को कितना गलत समझ बैठते हैं।”

तभी राधेश्याम जी वापस आए। वे चिंतित और दुखी दिखाई दिए। मैं उनकी माता की मौत पर दुख व्यक्त करने के लिए सही शब्द तलाशने लगा, परन्तु तुरंत कुछ सूझ ही नहीं रहा था। राधेश्याम जी की उम्र देखते हुए बेशक बूढ़ी होंगी, लेकिन माँ तो आखिर माँ ही होती है।

मेरे कुछ कहने से पहले ही राधेश्याम जी बोले “मैंने अधिकारियों से बातचीत कर ली है। आप फटाफट सामान समेटकर मेरे पीछे-पीछे आओ।”

दुख की इस घड़ी में भी राधेश्याम जी की हिम्मत देखकर उन्हें सलाम करने को जी चाहा। वरना उनके चले जाने के बाद हमें सामान जमा करवाने के लिए दर-दर भटकना पड़ता। एक पल में ही हमने जैसे उनकी पिछली सभी गलतियों को माफ़ कर दिया था।

अपने सिरों पर मशीनें व बैल्ट बक्से उठाए और कंधों पर अपने बैग टाँगे हम भीड़ में घुस गए। अब तक दूरदराज़ के इलाकों की पोलिंग पार्टियाँ पहुँचने से तीनों काउंटर पर भारी भीड़ ऐसे टूट पड़ी थी, जैसे मरुस्थल में मीलों भटकने के बाद अचानक उन्हें कोई नखलिस्तान दिखाई पड़ गया हो। सामान लेने वाले भी अजीब नौसिखिये थे, जिन्हें खुद ही स्पष्ट नहीं था कि क्या-क्या चेक करके लेना है? वे बार-बार उठकर दूसरे काउंटर पर पूछने जाते, जिससे लाइन आगे ही न सरकती थी। घंटों लाइनों में खड़े लोगों के सब्र का पैमाना छलक गया। आगे बढ़ने के लिए अब वहाँ धक्का-मुक्की और हो-हल्ला मच गया था। कई तो आपस में गाली-गलौज और हाथापाई पर भी उतर आए थे। पढ़े-लिखे, नौकरी-पेशा और तथाकथित ‘समझदार’ लोगों को अनपढ़ और जाहिलों की भाँति पेश आते देखकर आश्चर्य और दुख हुआ। प्रशासन भी कम कसूरवार न था। बेहतर व्यवस्था के उसके तमाम दावे एक बार फिर धरे के धरे रह गए थे। इन्हीं वजहों से तंग आकर ही कर्मचारी सिफ़ारिशों और झूठे मेडिकल सर्टिफ़िकेट के सहारे चुनावी ड्यूटी कटवा लेते हैं। सिर्फ़ हम जैसे बिना सिफ़ारिशी ही फँसते हैं!

हमारे यूँ आगे बढ़ने पर भीड़ ने कड़ा एतराज़ जताया, किंतु राधेश्याम जी के पीछे-पीछे भीड़ को चीरते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अंततः सब ने शोर मचाकर हमारा रास्ता रोक लिया; जैसे जानना चाहते हों कि जल्दी जमा करवाने का तुम्हारे हाथ ऐसा कौन-सा अलादीन का चिराग लग गया है?

तभी सामान लेने वाले एक कर्मचारी ने चिल्लाकर उनकी जिज्ञासा शाँत की "प्लीज़, इन्हें आगे आने दीजिए। इनके परिवार में डैथ हो गई है!"

न चाहते हुए भी हमारे लिए जगह बनाई गई। आगे बढ़कर राधेश्याम जी ने लिफ़ाफ़े और हमने मशीनें व मतपेटियाँ उन्हें थमाई। सिर से भारी बक्सा उतरते ही मुझे राहत महसूस हुई। सामान अपने नज़दीक रखवाकर लिफ़ाफ़े लेते हुए वही कर्मचारी बड़ी आत्मीयता से पूछने लगा "मदर की डैथ कब हुई?"

राधेश्याम जी गंभीर और धीमी आवाज़ में बोले "सर, अभी एक घंटा पहले। आज सुबह ही अस्पताल में दाखिल करवाकर आया था। मन बड़ा दुखी है।"

बस में हमारे साथ आई पोलिंग पार्टियाँ पिछले डेढ़ घंटे से लाइन में खड़ी थी। हमारी मदद करने आया पीठासीन अधिकारी भी उनमें शामिल था। चाहे कितनी भी बड़ी मजबूरी क्यों न हो, किंतु हमारा सबसे पहले सामान जमा करवाना उनसे जैसे बर्दाश्त ही नहीं हो रहा था।

लेकिन तभी वही कर्मचारी कहता सुनाई दिया "सर, हमें आपसे पूरी हमदर्दी है, किंतु कागज़ तो पूरे होने ही चाहिए।"

राधेश्याम जी की माता के ग़म में डूबे हम भूल ही गए थे कि अभी हमारे कागज़ भी पूरे नहीं हुए थे। अब क्या होगा? हमारी धड़कनें बढ़ गईं। राधेश्याम जी मिन्नतें करने लगे। हमने तमाम देवी-देवताओं को एक पल में ही याद कर डाला, लेकिन वह टस से मस न हुआ "सॉरी सर! आप उच्च अधिकारियों से बात कर लीजिए।’’

राधेश्याम जी अभी भी गिड़गिड़ा रहे थे, जिससे पास बैठे दूसरे कर्मचारी को उन पर तरस आ गया "मुझे दिखाओ क्या दिक्कत है?"

उसने फ़ॉर्म लेकर दो-तीन गलतियाँ खुद ही ठीक कर दीं। उस पल वह हमें किसी देवदूत की भाँति नज़र आया। बाकी गलतियाँ तो शायद सील किए हुए लिफ़ाफ़ों में छिप गई थी। अन्य सामान भी फटाफट जमा हो गया। रिलीविंग स्लिप हाथ में लेकर राधेश्याम जी ने उन्हें धन्यवाद दिया। सहसा हमें यकीन ही नहीं हुआ कि सामान सचमुच इतनी जल्दी जमा हो चुका था। हम चुपचाप भीड़ से बाहर निकल आए।

भीड़ का शोर, धक्का-मुक्की और गाली-गलौज पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गया था। व्यवस्था बनाने के लिए अब पुलिस को बुला लिया गया था। सुबह चार बजे तक भी पोलिंग पार्टियाँ नहीं निपटने वाली थी।

कई बार मनचाहा काम होने पर भी आप प्रसन्न नहीं हो पाते। ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ था। हम बेशक इतनी ही जल्दी निपटना चाहते थे, परन्तु इस वजह और तरीके से बिलकुल भी नहीं! जल्दी घर जाते हुए हममें से कोई भी खुश नहीं हो पा रहा था।

भीड़ को पीछे छोड़ हम पार्किंग स्थल की तरफ़ अपनी बाइक उठाने चल पड़े। राधेश्याम जी गाड़ी में थे। हम उनके लिए परेशान और दुखी थे, किन्तु होनी को कौन टाल सकता है? इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। जैसे ही वे गाड़ी लेकर हमारे नज़दीक आए, संदीप चौधरी ने हाथ से इशारा करके गाड़ी रुकवाई “सर, ऐसी हालत में आप अकेले कैसे जा पाएँगे? मैं ड्राइव करके आपको घर छोड़कर आता हूँ।”

हमें संदीप की दरियादिली अच्छी लगी थी।

लेकिन राधेश्याम जी ने हमें घूरा और फिर अचानक मुस्कराए “अरे, क्यों टेंशन लेते हो? माँ को मरे तो पाँच साल हो गए हैं!”

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