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रचनाः बोया बीज बबूल का
तिथिः 05 जून 2021
श्रेणीः  नाटक

रचना परिचयः

जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को पालने-पोसने और सफलता तक ले जाने के लिए हर प्रकार का समझौता और बलिदान किया, वही माता-पिता जब वृद्ध हो जाते हैं तो उनकी संतानें कैसे उनसे मुँह फेर लेती हैं, इसी पर केंद्रित है यह रचना।

बोया बीज बबूल का

- बोया बीज बबूल का

पात्र-परिचय :

1. मालती - उम्र 70 वर्ष

2. सरोज - मालती का पुत्र - उम्र 40 वर्ष

3. शालिनी - सरोज की पत्नी - उम्र 36 वर्ष

4. दो साल की बच्ची

5. वृद्धाश्रम के कुछ मिहला-पुरुष - उम्र 60 से 75 वर्ष

दृश्य एक

[घर का डायनिंग रूम। शालिनी मोबाइल पर व्यस्त है। उसकी बेटी फ़र्श पर चिल्ला रही है। मालती कमरे से निकलकर आती है।]

मालती : [गुस्से से लाल होकर] यह क्या तमाशा है शालिनी! बेटा गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा है और तुम हो कि कान पर जूँ तक नहीं रेंगता।

शालिनी : [लापरवाही से] आपके कान पर रेंगता है, तो क्यों नहीं उठा लेतीं? आपका भी तो कुछ लगता है।

मालती : तुम्हारी इसी लापरवाही के कारण अभी कुछ ही दिनों पहले इस फूल से प्यारे बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। तुम्हें फिर भी कोई चिंता नहीं?

शालिनी : ज़्यादा चिंता है, तो दाई क्यों नहीं रख लेतीं। पॉकेट में से नोट निकलेगा तब तो?

मालती : अपने बच्चे को भी नहीं सँभाल सकती? कौन-सा ज़िला कलक्टर बन गई हो?

शालिनी : मुझे मेरी औकात मत दिखाओ। अपनी देखो। और हाँ, हद को पार करने की कोशिश मत करो।

मालती : तो तुम बच्चे को भी नहीं पाल सकती? बच्चे से ज़्यादा ज़रूरी मोबाइल चलाना ही है?

शालिनी : [मालती को घूरती हुई] मेरे पर्सनल लाइफ़ को नज़र मत लगाना, वरना मैं नज़र उतारना भी जानती हूँ। [व्यंग्य से] समझीं न सासू माँ!

मालती : तुम मुझको धमकी देती हो? अपनी सास को? इस घर की मालकिन को?

शालिनी : अब इस घर की मालकिन मैं हूँ। जानती नहीं, आपके बेटे ने मुझे पाने के लिए ज़मीन-आसमान एक किया था। मेरी सारी शर्तों को पल भर में मान गए थे। अब यह घर मेरा है। [भौंहें टेढ़ी करती हुई] चुपचाप अपना बोरिया-बिस्तर समेट ले बुढ़िया, अन्यथा...

मालती : अन्यथा क्या कर लोगी? आने दे सरोज को, तुझे आज ही सबक सिखाती हूँ।

शालिनी : [खड़े होकर] अपनी औकात में रह बुढ़िया! मुझपर रोब जमाने की जुर्रत मत करना। और अपने बेटे के डर से डराती है? वह तो मेरा गुलाम है, गुलाम! जैसा कहूँगी, वैसा करेगा। मैं चाहती, तो तुझे कब का घर से निकाल देती। पर आस-पड़ोस वाले क्या कहेंगे, इस लोक-लाज से चुप थी। किन्तु पानी अब सर से ऊपर जा चुका है।

मालती : तो तुम मुझे मेरे ही घर से निकाल दोगी? अच्छा रुक, आने दे सरोज को। तेरा तो वो हाल कराती हूँ....

[सरोज का प्रवेश। हाथ का बैग सोफ़ा पर पटकता है।]

सरोज : [मालती से] ये क्या हल्ला मचा रखा है माँ! जब देखो तब लड़ती रहती हो बहू से! इस घर में आदमियों के लिए जगह है भी या नहीं? [शालिनी रोने लगती है।]

शालिनी : अब मैं इस घर में एक पल नहीं रहूँगी। मुझे मेरे मायके पहुँचा दो। रोज़-रोज़ सासू माँ के हाथों पिटाने से अच्छा है कि माँ-बाप के माथे पर ही मूँग दलूँ।

सरोज : [मालती से] तूने इस घर को क्या बना रखा है माँ! दिन भर तुम लड़ती ही रहोगी, तो इस घर में शांति कैसे रहेगी? तुम एक बहू के साथ एडजस्ट नहीं कर सकती?

मालती : मैंने कुछ नहीं किया है बेटा...

शालिनी : [मालती की आवाज़ को दबाती हुई] अब तो इस घर में फ़ैसला हो ही जाना चाहिए। या तो अपनी माँ के साथ रहोगे या बीवी-बच्ची के साथ। तुरंत फ़ैसला होना चाहिए। अभी के अभी।

सरोज : हाँ, हाँ फ़ैसला होकर रहेगा। अब तो रोज़ के झमेले से अच्छा है कि साफ़-साफ़ निर्णय हो जाए। मेरा जीवन भी नरक बन गया है। जब भी ऑफ़िस से आता हूँ, किचकिच चलती रहती है।

मालती : किंतु बेटा...

शालिनी : कुछ भी नहीं किंतु-परंतु। एक बार साफ़-साफ़ निर्णय हो ही जाए। रोज़-रोज़ का खेला खत्म।

सरोज : चलो, चलो, सब अपने-अपने कमरे में जाओ। कल सुबह जय-क्षय हो जाएगा। मैं रातभर में सोचकर कल बताऊँगा। पर अब अधिक दिनों तक इसे टालना किसी के हित में नहीं है।

[मालती की आँखें भर आती हैं। वह दुपट्टे से आँख पोंछती है। शालिनी मुस्करा रही है। वह खुश होकर बच्ची को उठाती है।]

दृश्य दो

[वृद्धाश्रम का कमरा। एक चौकी पर मालती भारी मन से बैठी है। सरोज पास में एक पेटी रखते हुए कमर से सीधे खड़ा होता है।]

सरोज : माँ, तुम बुरा मत मानना। आखिर दो तलवार एक मयान में कैसे रह सकती हैं? तुममें से कोई भी मानने को तैयार नहीं है। तो फिर तुम्हीं बताओ, रोज़-रोज़ की किचकिच से तो बढ़िया है न कि तुम आराम से इस वृद्धाश्रम में रहकर भगवान का नाम जपो।

मालती : [दर्द को छिपाती हुई] हाँ बेटा, तूने एकदम सही निर्णय लिया है। मैं तो दो-चार साल की मेहमान हूँ। आखिर तुम्हें सारी ज़िंदगी तो बहू के साथ ही गुज़ारनी है न! इसलिए तुम्हारा जीवन आनंदित रहे, यही मैं भी चाहती हूँ।

सरोज : [मालती को चूमते हुए] तू कितनी अच्छी है माँ! आई लव यू मॉम, लव यू टू मच!

मालती : [अपने को सँभालती हुई] बेटा, कोई भी माता-पिता नहीं चाहता कि उसकी संतान दुखी रहे। और मैं भला कैसे चाहती, मेरा तो तू अकेला आँख का तारा है। तेरा जन्म हुआ था न, तो तेरे पिताजी इतने खुश थे कि पुरोहितों को बुलवाकर यज्ञ करवाया था और मुहल्ले भर को भोज खिलाया था। मैं भी उस समय अपने आप को महारानी से कम नहीं समझती थी। अपने सारे पैसे लुटा दिए थे। [आँखों से आँसू टपक आते हैं। वह जल्दी से पोंछती है।]

सरोज : तुम भी न माँ, फिर उसी दुनिया में चली गई। अब उस माया-मोह को भूलकर भगवान की भक्ति करो। इसी से परलोक की यात्रा सुगम होगी। आखिर सबको तो एक दिन वहीं जाना है न! हिसाब-किताब भी होगा।

मालती : हाँ बेटे, मैं तो बहू और पोती के चक्कर में यह तो भूल ही गई थी। अच्छा किया तूने मुझे याद दिला दिया। और उससे भी अच्छा किया कि भक्ति-मार्ग का राही बना दिया। अब मैं इस वृद्धाश्रम में तल्लीन होकर भगवान की भक्ति करूँगी।

सरोज : [चेहरे पर सुकून है] हाँ माँ, यहाँ कुछ भी कमी नहीं होगी। मैंने मैनेजर से बातचीत कर ली है। वह जान-पहचान का ही है। तुम्हें किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने देगा। और समय-समय पर मैं भी कुछ लेते आऊँगा। पेटी में ज़रूरत के सामान हैं। हाँ, मैं तो चाबी देना भूल ही गया था। [जेब से चाबी निकालता है।] ये लो चाबी। सँभालकर रखना।

मालती : [अनिच्छापूर्वक] जिसे सँभालकर रखना चाहिए, उसे तो रख नहीं सकी; अब इस पेटी को क्या सँभालूँगी भला? खैर, तुझे बुरा नहीं लगे, इसके लिए रख दो इधर। [बिछावन की ओर इशारा करती है। सरोज चाबी रखता है।]

सरोज : [प्रणाम करने झुकता है] तो अब मैं चलता हूँ माँ, किसी चीज़ की दिक्कत हो, तो मैनेजर से मुझे फ़ोन करा देना।

मालती : हाँ बेटा, निश्चिंत होकर जा। कोई चिंता मत करना। बहू और प्यारी गुड़िया का खयाल रखना। मैं तो जानती थी कि मुझे अपने पाप का प्रायश्चित एक न एक दिन करना ही है। सो मैं कर लूँगी। और यह ज़रूरी भी था, नहीं तो ईश्वर पर से सबका विश्वास उठ जाता।

सरोज : ये क्या ऊलजुलूल बातें कर रही हो? कैसा पाप किया है तूने? तुम तो धर्मात्मा हो।

मालती : नहीं बेटा, मैं धर्मात्मा नहीं हूँ। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। तुझे पाने के लिए मैंने तीन-तीन मासूमों का गर्भपात कराया है। उस समय मेरे सिर पर बेटा पाने का धुन सवार था। आखिर आज वह उतर गया।

[कुछ रुककर] पर तू ऐसी गलती मत करना बेटा, वरना तुम भी पछताओगे।

सरोज : क्या माँ, ये क्या उल्टी-सीधी बातें कर रही हो?

मालती : मैंने जानबूझकर बबूल का बीज बोया है, बेटा! काँटे तो चुभेंगे ही। अब इसका एक ही समाधान है - प्रायश्चित। मैं प्रायश्चित करके भगवान से क्षमा की प्रार्थना करूँगी। [हाथ उठाकर] हे भगवान! मुझे इसका कठोर दण्ड देना ताकि सबको सीख मिल सके। कोई भी माँ बेटे के लिए गर्भ में ही बेटी का गला न घोंटे। मुझे कभी माफ़ मत करना, कभी नहीं।

[मालती सिसकती है। सरोज कुछ देर के लिए ठिठक जाता है।]

-divakarbth@gmail.com

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