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रचनाः डॉ. प्रमोद कुमार दुबे
तिथिः 05 जून 2021
श्रेणीः  निबंध

रचना परिचयः

पाणिनि के व्याकरण में आठ अध्याय हैं, इसलिए उनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पद हैं और इसमें लगभग चार हज़ार सूत्र हैं। यह सम संख्याओं की संरचना है, जैसे वाक् की वेदी हो। प्रश्न यह है कि पाणिनि ने अपने व्याकरण में आठ अध्याय और उन अध्यायों के चार-चार पद अर्थात् कुल बत्तीस पद क्यों बनाए, क्या इसका कोई आधार है?

भाषा और अस्मिता

- डॉ. प्रमोद कुमार दुबे

आन्तरिक और बाह्य स्तरों पर मनुष्य की अस्मिता भाषा से सृजित और अभिव्यक्त होती है। भाषा और अस्मिता दोनों अभिन्न हैं। कहना कठिन है कि भाषा पहले है या अस्मिता पहले, क्योंकि मन के बिना मनुष्य नहीं होता और भाषा के बिना मन नहीं होता। मनुष्य के प्रत्येक प्रयास में सबसे पहले उसकी भाषा या कहें उसके शब्द ही पहल करते हैं।

सबसे पहले किसी लड़ाई में लड़ता है शब्द,

सबसे पहले किसी चढ़ाई में चढ़ता है शब्द,

सबसे पहले किसी कमाई में बढ़ता है शब्द,

शब्द मरेगा तो अर्थ मर जाएगा,

अर्थ मरेगा तो मन मर जाएगा,

मरे मन का मानुष बच नहीं पाएगा,

खुद नहीं बचा तो देश क्या बचाएगा।

शब्द में ही ज्ञान गूँथा हुआ है, इसलिए शब्द से ही सब कुछ भासमान होता है – ‘अनुविद्घमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते’ (वाक्यपदीय, भर्तृहरि)। शब्द से ही मन प्रकाशित होता है। विश्वप्रसिद्ध भाषा दार्शनिक भर्तृहरि मानते हैं कि मनुष्य की बुद्धि में शब्द सुप्त रहता है, जैसे अरणि में ज्योति। अरणि के मंथन से ज्योति प्रकट हो जाती है, वैसे ही बुद्धि में रहनेवाला शब्द अर्थबोध की इच्छा से मथित होकर प्रकट हो जाता है और भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्दों की उत्पत्ति का निमित्त बन जाता है – ‘अरणिस्थं यथा ज्योतिः प्रकाशान्तरकारणम्’ (46- ब्रह्मकाण्ड, वाक्यपदीय)। भारतीय भाषा दर्शन यह बताता है कि व्यवहार में ही नहीं, मनुष्य के अन्तःकरण में भी भाषा निहित है। आगमिक धारणा भी यही है कि मनुष्य के शरीर में जन्म के साथ ही अव्याकृत वाक् से निसृत वर्णों की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान रहती है, इन्हीं वर्णों से देहस्थ योग चक्र बने होते हैं।

वर्ण सत्ता को नित्य माना गया है। वर्णों के उद्भव संबंधी तथ्यों को पाणिनि ने तीन प्रकार से बताया है। पहला - शिव के डमरू नाद से चौदह माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति और उनसे बयालीस या तिरालीस प्रत्याहारों का निकलना। प्रत्याहार में मूल वर्ण नहीं, वर्ण समूह होते हैं। दूसरा - मनुष्य के अन्तःकरण, कायाग्नि और प्राणतंत्र के साथ गायत्री, त्रिष्टुभ् इत्यादि दिक्कालीय छन्दों द्वारा वर्णोद्भव और तीसरा - मनुष्य के उच्चारण तंत्र के आठ स्थानों - उर, कण्ठ, मूर्धा, जिह्वामूल, दंत, नासिका, ओष्ठ और तालु के अनुसार वर्णों का वर्गीकरण। तीसरा तथ्य प्रयोग सिद्ध है, इससे वर्णोद्भव का विषय बोधगम्य हो जाता है। पाणिनि ने मनुष्य शरीर में वर्णों के उच्चारण स्थान को निर्धारित करके व्यक्तिशः उच्चारण की निजी पहचान को चिह्नित कर दिया और उच्चारण संबंधी भाषा की विकृति को नियंत्रित किया। उच्चारण की शुद्धता द्वारा वर्तनी की शुद्धता सुनिश्चित हुई, साथ ही उच्चारण और लेखन में समानता विकसित हुई।

वस्तुतः वर्णों के उद्भव संबंधी इन तीनों में एक ही संरचना अंतर्निहित है। वह संरचना वाक् और वाद्य में समान रूप से व्यक्त होती है और मनुष्य शरीर के प्राण तंत्र से भी। चूँकि पाणिनि को लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार की भाषाओं की व्याकरणिक व्यवस्था करनी थी, उन्होंने पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में व्याप्त वाक् सत्ता की संरचना को आधार बनाया, नौ और पाँच बार बजनेवाले शिव के डमरू से ब्रह्माण्ड की वाक् सत्ता को प्रतीकीकृत किया और देह पिण्ड की वाक् सत्ता को आठ उच्चारण स्थान के अनुसार वर्णों में वर्गीकरण किया। इन दोनों के मध्य आत्मा, बुद्धि, मन आदि अंतःकरण, कायाग्नि, मरुद् का प्राणतंत्र और गायत्री, त्रिष्टुभ् आदि दिक्कालीय छन्दों को सेतु की भाँति प्रयुक्त किया। निश्चय ही यह योगगम्य गंभीर विषय है, फिर भी पाणिनि के व्याकरणिक संरचना पर चर्चा के लिए पाणिनीय शिक्षा में दिए गए इस विषय का संक्षिप्त विवरण आवश्यक है।

पाणिनि के व्याकरण में आठ अध्याय हैं, इसलिए उनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पद हैं और इसमें लगभग चार हज़ार सूत्र हैं। यह सम संख्याओं की संरचना है, जैसे वाक् की वेदी हो।

प्रश्न यह है कि पाणिनि ने अपने व्याकरण में आठ अध्याय और उन अध्यायों के चार-चार पद अर्थात् कुल बत्तीस पद क्यों बनाए, क्या इसका कोई आधार है? वस्तुतः वाक् की यह चतुष्पदीय संरचना ऋग्वेद के अस्यवामीय सूक्त में बताई गई वाक् की संरचना पर आधारित है, उसमें वाक् के चार पद हैं - चत्वारि वाक् परिमिता पदानि (1.164. 45)। वाक् सदृश्य ज्ञान भी संरचनात्मक है। ज्ञान सूक्त (ऋ. 10. 71) से ज्ञात होता है कि ज्ञान में सोपानिक क्रम है। इसी प्रकार वयन सूक्त (ऋ. 10.130) से पता चलता है कि प्राण तंतुओं की बुनावट वस्त्र के समान है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि वाक्, ज्ञान और प्राण में समरूप संरचना निहित है और ये तीनों एक समान स्तर में अविभाज्य रूप से रहते हैं। इस वैदिक तथ्य को पाणिनीय शिक्षा भी अपने शब्दों में बताती है। इस ग्रंथ में बताया गया है कि आत्मा, बुद्धि, मन और प्राण की परस्पर सक्रियता से वर्णों का उद्भव होता है, इसी परस्पर सक्रियता में वाक्, ज्ञान और प्राण का अविभाज्य संबंध सिद्ध होता है। वाक्यपदीय में भी यही तथ्य शब्द, बुद्धि और अर्थ बोध के संदर्भ में कहा गया है, यह कि शब्द बुद्धि में सुप्त रहता है, वह अर्थबोध की इच्छा से प्रकट होता है और शब्द के साथ ज्ञान गूँथे हुए ज्ञान से ही सब कुछ भासित होता है। वाक्यपदीय दैहिक सत्ता में शब्द, बुद्धि और अर्थ का विमर्श करता है, लेकिन वेद वचन द्वारा शब्द को वाक्, बुद्धि को ज्ञान और प्राण को सूर्य की रश्मियाँ बताया गया है। वाक्, ज्ञान और प्राण चराचर जगत में व्याप्त है। श्रुति कहती है - तस्य भासा सर्वमिदं बिभाति, अर्थात् उसी परम सत्ता की भाषा सर्वत्र शोभित हो रही है। इसलिए वर्णों की नित्य सत्ता को सूर्य की रश्मियों में निहित माना गया और रश्मि समूह को काल गणना का आधार बनाया गया, जिसे अहर्गण कहा जाता है। अहर्गण में रश्मि और ध्वनि दोनों संयुक्त हैं, वर्ण शब्द रश्मि और ध्वनि दोनों का अर्थ संवाहित करता है।

आज यूरोप के भाषाविद् सार्वभौमिक भाषा व्यवस्था की बात अवश्य कर रहे हैं, लेकिन उनका भाषा विमर्श मनुष्य मस्तिष्क और मनुष्य रचित समाज व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता तक सीमित है, जब कि वाक्, ज्ञान और प्राण प्रत्येक प्राणी में है। कई मनुष्येतर प्राणियों में विशेष ज्ञान है, जो मनुष्य में नहीं है, जैसे कुत्तों में सूँघकर जानने की क्षमता। इसकी जानकारी वैदिक काल में भी थी, प्रसंग आया है कि सरमा नाम की कुतिया ने पणियों द्वारा चुराई हुई गायों को खोज निकाला। सार्वभौमिक भाषा व्यवस्था और उसके नियमों पर विचार करते हुए प्रकृति और प्राणिमात्र को एक साथ लेकर चलना होगा, क्योंकि साहित्यिक रचनाएँ प्रकृति और प्राणियों को आत्मीय भाव से साथ लेकर चलती हैं। इनके प्रतीक, बिम्ब, अलंकार का सृजन नहीं होता। आदिकवि वाल्मीकि या गोस्वामी तुलसीदास जानते हैं कि राम को खग, मृग, मधुकर श्रेणी खोई हुई सीता का पता नहीं बता पाएँगे, न दण्डकारण्य के पर्वत बोलेंगे और न गोदावरी कुछ कहेगी, फिर भी सीता के बारे में राम सबसे पूछते हैं। साहित्य के लोक में यही स्थिति विश्व भर के साहित्य की है। इसलिए भाषा भी केवल मनुष्य और मनुष्य समाज तक सीमित नहीं रखी जा सकती, तब भाषा विमर्श को वैदिक प्रज्ञान की पृष्ठभूमि में खड़े पाणिनि, पतंजलि और भर्तृहरि जैसे भाषा दार्शनिकों का अनुसरण करना होगा।

यह सच है कि भारतीय भाषा दर्शन से यूरोपीय विद्वानों ने अपनी जिज्ञासा दिखाई। स्वीस भाषाविद् फ़र्डिनेण्ड डी. सोसोर (1857-1913) ने 1880 में पाणिनीय व्याकरण पर आधारित शोध कार्य किया और यूरोप की ज्ञान परंपरा में संरचनात्मक भाषा विज्ञान नामक ऐसा बहुमूल्य योगदान दिया, जिससे उत्तराधुनिक और उत्तर संरचनावादी विमर्श के विचारक 19वीं शताब्दी से निरंतर प्रभावित हुए। सोसोर ने वाणी और भाषा में अन्तर माना। यह माना कि वाणी में भाषा निहित होती है, भाषा सुसंगत और संरचनायुक्त होती है। प्रत्येक भाषा का व्याकरण होता है, उसके नियम होते हैं, उसके शब्द होते हैं शब्द में ध्वनि होती है। सोसोर ने पूर्व प्रचलित संस्कृत व्याकरण के प्रकृति-प्रत्यय, वाक्य रचना, धातु आदि आधार को ग्रहण किया और अपनी शोध दृष्टि से कार्य किया। पाणिनि के व्याकरण में वाणी और भाषा का अन्तर स्थापित नहीं है। उन्होंने अपने समय की लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार की भाषाओं के लिए एक ही अष्टाध्यायी नामक व्याकरण बनाया, लेकिन सोसोर ने वाणी और भाषा में अंतर दिखाया। उन्होंने अपने शोधकार्य में संरचना को विशेष स्थान दिया।

सोसोर ने भाषा की मूल इकाई को संकेत कहा। संकेत स्वेच्छित होता है। जैसे सुन्दर मुख के अर्थ में चन्द्रमा शब्द का उपयोग किया जाता है। यह संकेत मात्र है, वास्तव में मुख और चन्द्रमा एक नहीं है, लाल रंग का अर्थ ठहरना नहीं होता और न हरे रंग का अर्थ जाना, यह एक विशेष प्रयोग है, जिनके अनुसार रास्ते पर गाड़ियाँ ठहरती हैं और जाती हैं। इससे ज्ञात होता है कि शब्द का स्वेच्छित प्रयोग सर्वमान्य विषय है। भारतीय भाषा चिन्तकों ने शब्द को सर्वार्थक कहा, अर्थात् किसी शब्द को किसी भी अर्थ में प्रयोग किया जा सकता है – ‘सर्वे सर्वार्थवाचकाः।’ माना जाता था कि चूँकि शब्द ही प्रतिभा का कारण है, इसलिए शब्द से विभिन्न प्रकार के अर्थ उत्पन्न होते हैं। संकेत के विषय में पातंजल भाष्य में कहा गया है कि शब्द और अर्थ का पारस्परिक अध्यास ही संकेत है – ‘संकेतस् पद-पदार्थयोर् इतरेतराध्यसरूपः।’ अध्यास का सामान्य अभिप्राय आरोप है, शब्द पर जैसा अर्थ आरोपित कर दिया गया, शब्द से उस अर्थ का संवाहन होने लगा। बहुधा मुक्त दशा में शब्द को पद कहा जाता है। पद ही अन्य शब्दों के साथ प्रयुक्त होकर अर्थ वाहक शब्द हो जाता है। किसी अकेले शब्द से अर्थ वहन नहीं होता, जब तक उसे अन्य शब्दों के अर्थ बाधित करते। एक शब्द को अन्य शब्दों की संगति से मिला हुआ अर्थ सृजित होता है। जैसे मुख की सुन्दरता को संकेतित करने के लिए चन्द्रमा का आरोप हुआ, चन्द्रमा संकेतक है और मुख संकेत। वाक्य रचना से व्यक्त अर्थ के स्तर पर किए गए इस विचार को सोसोर ने व्यापक बनाया। उन्होंने भी कहा है कि किसी शब्द का अकेले कोई अर्थ नहीं होता, दूसरे शब्दों के साथ ही अर्थ बनता है।

सोसोर की विश्लेषण की पद्धति और संरचनात्मक भाषा विज्ञान को आधार बनाकर लेवी स्ट्रॉस ने नृतत्त्वशास्त्र का अध्ययन किया। लेवी स्ट्रॉस के लिए संकेत एक व्यक्ति के सदृश्य है, जो सामाजिक संबंधों में नए-नए अर्थ ग्रहण करता है, कहीं पुत्र, कहीं भाई, कहीं चाचा इत्यादि। जैसे व्यक्ति भी वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द हो। इस विमर्श में एक उक्ति प्रचलित हुई कि अकेली रेखा के विषय में नहीं कहा जा सकता कि वह कैसी है, लंबी या छोटी, पतली या मोटी, जब तक उसके पास कोई दूसरी रेखा नहीं खींची जाती। एक रेखा के अर्थ को समझने के लिए दूसरी रेखा आवश्यक है। नृतत्त्वशास्त्री लेवी स्ट्रॉस का यह द्विपदीय प्रयोग (बाइनरी टर्म) बहुचर्चित हुआ। इस तरह भाषा की संरचना समाज की संरचना के अध्ययन का उपकरण बन गया, भाषा और समाज एकीकृत हुए।

लेवी स्ट्रॉस के बाद सोसोर के संरचनात्मक भाषा विज्ञान की अगली कड़ी के रूप में विखण्डन के पक्षधर उत्तर संरचनावादी विचारक जॉक् दरिदा का नाम जुड़ता है। जैसे सोसोर ने वाणी और भाष का अंतर किया था, दरिदा ने भाषा और लेखन का अंतर किया। उनका मानना था कि उत्तर संरचनावाद में भाषा से अधिक महत्त्वपूर्ण लिखित सामग्री होती है। जैसे संरचनावाद में शब्द का अर्थ अकेले शब्द में नहीं, अन्य शब्द के संबंधों में होता है, वैसे ही उत्तर संरचनावाद में लिखित सामग्री से बने विमर्श का अर्थ भी दूसरे विमर्शों के संबंध में होता है। विमर्शों के क्षेत्र में भी शब्दों के परस्पर संबंध से निकलनेवाले अनेक अर्थ की तरह, परस्पर संबंध से अनेक विमर्शों की श्रृंखला बनती जाती हैं। लेवी स्ट्रॉस के संरचनात्मक चिन्तन भी नातेदारी की श्रृंखला दिखाई देती है।

दरिदा ने पाठ को विमर्शों की पुलिंदा कहा। उसके विश्लेषण के लिए विखण्डन की विधि बनाई। उनकी दृष्टि में समाज की रीति-नीति पूर्व निर्धारित पाठ की तरह है, जिसे किसी मान्य लेखक ने लिखा और समाज मानस में भर दिया। इस तरह के पूर्व निर्धारित धारणाओं पर चलने वाले समाज जीवन को दरिदा निर्मम थिएटर कहते हैं और वैकल्पिक थिएटर की परिकल्पना देते हुए कहते हैं कि ऐसा थिएटर होना चाहिए, जिसमें दृश्य और चरित्र विकेन्द्रित हों, पात्र अपने संवाद और अभिनय के लिए स्वाधीन हो। निर्मम थिएटर के विखण्डन से दरिदा का अभिप्राय यही प्रतीत होता है कि वे परतंत्रता के विरुद्ध स्वाधीन और प्रसन्न समाज जीवन की अपेक्षा करते हैं। वस्तुतः भाषा, मनुष्य-मस्तिष्क, ज्ञान, शक्ति और समाज जीवन का अभिन्न अंग हैं।

यूरोप के चिन्तन पर संरचनात्मक भाषा विज्ञान का व्यापक प्रभाव पड़ा, भौतिक चिन्तन को स्थूलता से मुक्ति मिली। मार्क्सवाद का भी न्यू मार्क्सवाद सिद्धान्त सामने आया। न्यू मार्क्सवादी विचारकों में एक है हेबरमॉस। इस विचारक को इसलिए महत्त्व दिया जाना चाहिए कि इसने भाषा के व्याकरण की तरह सार्वभौमिक ज्ञान और सार्वभौमिक नैतिकता के नियम बनाने की बात उठाई। हेबर मॉस का यह विचार नोम चोम्स्की की भाषा संबंधी धारणा से प्रेरित है। चोम्स्की ने तर्क दिया था कि भाषा को प्रयोग में लाकर सार्वभौमिक नियम बनाए जा सकते हैं। मनुष्य के मस्तिष्क में जिस तरह की जैविकीय संरचनाएँ होती हैं, समाज में वैसी ही संरचनाओं का निर्माण होता है। हेबरमॉस ने चोम्स्की के विचार को संस्कृति के संदर्भ में लिया और सांस्कृतिक तत्त्वों का विश्लेषण किया। वैश्वीकरण के दौर में भाषा और संस्कृति के साथ तर्कसंगत संप्रेषण पर हेबरमॉस के कार्य को महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए, क्योंकि वह ज्ञान को वरीयता देता है, मानता है कि ज्ञान ही मनुष्य को पशु समाज से अलग एक विशिष्ट पहचान देता है।

सोसोर के संरचनात्मक भाषा विज्ञान से आरंभ हुई यह ज्ञान यात्रा अपेक्षा करती है कि जिस पाणिनि से सोसोर ने भाषा का दर्शन प्राप्त किया, उसपर सार्वभौमिक ज्ञान, नैतिकता और विश्व भर की भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला व्याकरण बनना चाहिए, निश्चय ही भारतीय मनीषा के इस वैश्विक योगदान से विश्वमानस में नई ज्योति जगमगा उठेगी।

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