डॉ. हेंस वर्नर वेसलर जर्मनी मूल के हिंदी विद्वान हैं तथा संप्रति भाषा विज्ञान एवं वांग्मय संस्थान, उप्साला विश्वविद्यालय, स्वीडन में प्रोफ़ेसर हैं। आप दक्षिण एशिया वांङमय एवं भाषा विज्ञान की परंपरागत शिक्षण शैली को निरंतरता प्रदान करने एवं आधुनिक दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति पर अनुसंधान से संबद्ध हैं। आपकी अध्ययन पृष्ठभूमि भारत-विज्ञान (Indology) रही है, किन्तु पिछले कई वर्षों से आपने भारत एवं पाकिस्तान में हिंदी एवं उर्दू साहित्य तथा इन देशों के सांस्कृतिक इतिहास, धर्मशास्त्र एवं समाज के विभिन्न पहलुओं पर विशेष अध्ययन किया है। आप फ़ोरम फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ (एफ़.ए.एस. एस.) तथा यूरोपियन एसोसिएशन फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ (इ.ए.एफ़.ए.एस.एस.) के बोर्ड मेम्बर हैं। पिछले दिनों अपनी भारत यात्रा के दौरान डॉ. हेंस से डॉ. जवाहर कर्नावट ने विविध अकादमिक विषयों पर बातचीत की, जिसे यहाँ प्रस्तुत किया गया है।कृपया अपनी पारिवारिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के बारे में हमें बताएँ।
मेरा जन्म सन् 1962 में जर्मनी में हुआ। मेरे पिताजी सरकारी सेवा में थे और माताजी गृहिणी हैं, जिनकी उम्र 84 साल है। मेरे परिवार में हिंदी पठन-पाठन या यूँ कहें कि भारत के बारे में जानने का कोई विशेष माहौल नहीं था, किन्तु मेरे पिताजी के देहांत के बाद मुझे तमाम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और मेरी सोच बदली। मैंने 15 साल की उम्र में हेरमान हैस्सेस का उपन्यास ‘सिद्धार्थ’ पढ़ा, जो काफ़ी प्रचलित था। इससे मेरे अंदर भारत को जानने की कल्पना जगी, बौद्ध धर्म की ओर अभिरुचि जगी। बाद में मैंने भगवद्गीता का भी अध्ययन किया। ‘The Geeta according to Gandhi’ नामक पुस्तक से मैं प्रभावित हुआ, जिसकी एक प्रति मुझे संयोग से एक पुरानी किताबों की दुकान में हाथ में आई। जब मुझे पता चला कि जर्मन विश्वविद्यालय में हिंदी, संस्कृत, पालि आदि भाषाओं की पढ़ाई होती है, तभी मैंने संस्कृत, पालि और हिंदी पढ़ने का निर्णय ले लिया, जबकि मेरी माताजी की इच्छा थी कि मैं साइन्स पढ़कर डॉक्टर या इंजीनियर बनूँ। मैंने अपनी ज़िद्द के कारण 1988 में बॉन विश्वविद्यालय, जर्मनी से ‘तुलनात्मक धर्मशास्त्र’ (Comparative Religions) में एम.ए. किया और ‘विष्णु पुराण के इतिहास और काल कल्पना’ विषय पर ज़्यूरिक विश्वविद्यालय, स्विट्ज़रलैंड से 1993 में पी.एच.डी. की। संस्कृत मेरा मुख्य विषय था और हिंदी गौण। फिर मैंने वॉय्स ऑव जर्मनी से पत्रकारिता सीखी। बाद में मेरी शादी हो गई और मेरी पत्नी ने भी ‘तुलनात्मक धर्मशास्त्र’ में ही पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
आप संस्कृत और हिंदी के प्रति किन कारणों से प्रवृत्त हुए?
पी.एच.डी. के बाद मैंने लगभग फ़ैसला कर लिया कि मैं आगे हिंदी का अध्ययन करूँगा। मेरी इच्छा थी कि मैं सबके साथ बात करूँ, उनके साथ विचारों का आदान-प्रदान कर सकूँ, ताकि लोग मुझे अजीब प्राणी के रूप में न देखें। मैं लोगों के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहता था। इसलिए मैंने 2008 में ‘दलित साहित्य’ पर हिंदी में डी.लिट. किया। 2002 से 2010 तक मैंने बॉन विश्वविद्यालय, जर्मनी में सीनियर लेक्चरर के रूप में कार्य किया। चूँकि मैं भारत को पूरी तरह समझना चाहता था, उसके दर्शन और विपुल साहित्य को पढ़ना चाहता था, इसलिए संस्कृत और हिंदी की ओर प्रवृत्त हुआ।
विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी को आप कितना सहज पाते हैं?
हिंदी से पहले मैं संस्कृत के बारे में बात करना चाहूँगा। यूरोपीय देशों में और खासकर जर्मनी में संस्कृत की पढ़ाई 19वीं सदी से ही हो रही है। चूँकि यूरोपीय भाषाओं का संस्कृत के साथ एक गहरा अन्तः संबंध है, अतः संस्कृत की पढ़ाई करने के बाद हिंदी पढ़ना और आसान हो गया। हालाँकि, संस्कृत एक कठिन भाषा है और उसे सीखने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ती है। मैं संस्कृतनिष्ठ हिंदी को थोपना नहीं चाहता, किंतु उसके बिना हिंदी आधुनिक नहीं हो सकती है। हिंदी सीखने में मज़ा आता है। भारत में लोग अलग-अलग रूपों में हिंदी का प्रयोग करते हैं। असंख्य उप-बोलियों के अलावा बाज़ार की हिंदी, घरेलू हिंदी, प्रशासनिक हिंदी जैसे अलग-अलग तरीके से हिंदी बोली जाती है। मैंने केन्द्रीय हिंदी संस्थान, नई दिल्ली से हिंदी का एडवांस्ड डिप्लोमा भी किया है। दूसरी बात यह है कि हमने हिंदी को अपने में जीवन्तता लाने के उद्देश्य से सीखा। मैं अपने छात्रों को हिंदी जीवित भाषा में सिखाने की कोशिश करता हूँ। मैं मानता हूँ कि हिंदी सीखे बगैर करोड़ों भारतीयों के साथ आप संबंध स्थापित करने से वंचित रह जाएँगे।
यूरोप और यूरोपीय युवाओं में हिंदी और भारतीय संस्कृति के बारे में किस प्रकार की आवधारणा है?
60 के दशक के बाद युरोपीय देशों में आधुनिक भारत के प्रति अभिरुचि जागृत हुई है। भारतीय सिनेमा और टेलीविजन की दुनिया में कई ऐतिहासिक धारावाहिकों ने हिंदी और भारतीय संस्कृति की तरफ़ यूरोपीय युवाओं को आकृष्ट किया। अभी भी हिंदी भाषा के प्रति उतनी जागरूकता नहीं हो पाई है, जितनी चीनी भाषा के प्रति है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय फ़िल्मों ने यूरोपीय देशों के साथ-साथ दुनिया भर में हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करने का कार्य किया है, किन्तु सरकारी मशीनरी और साहित्यिक संस्थाओं का योगदान उतना नहीं हो पाया है, जितना होना चाहिए। आर्थिक जगत एवं रोज़गार के क्षेत्र में हिंदी अभी भी वैश्विक स्तर पर उतना सशक्त नहीं हो पाई है। फिर भी, मैं कहूँगा कि हिंदी एक सशक्त भाषा है, जिसका प्रसार होना चाहिए।
आप हिंदी को अंग्रेज़ी से किस रूप में अलग देखते हैं?
देखिए, भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। दुनिया की सभी भाषाओं का अपना महत्त्व होता है, किन्तु हिंदी और अंग्रेज़ी की प्रकृति थोड़ी अलग है। इस संदर्भ में मैं यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण देना चाहूँगा। जहाँ हिंदी में ‘तू’, ‘तुम’ और ‘आप’ जैसे तीन अलग-अलग संबोधन हैं, वहीं अंग्रेज़ी में केवल एक शब्द है ‘यू’। इस प्रकार संस्कारों की कसौटी पर हिंदी अधिक स्पष्ट भाषा है। फिर भी मैं मानता हूँ कि हर भाषा की खूबसूरती और उसकी ताकत ही उसकी पहचान होती है। मैं किसी भाषा को छोटी या बड़ी नहीं मानता हूँ, किन्तु एक बात हमें नोट कर लेनी चाहिए कि अंग्रेज़ी को ही आधुनिकता के साथ जोड़ना ठीक नहीं है। मुझे अफ़सोस होता है जब मैं देखता हूँ कि ऐसे बहुत लोग हैं, जो हिंदी को पिछड़ी और अंग्रेज़ी को आधुनिक समझते हैं। कोई भी भाषा कम आधुनिक नहीं है और हिंदी की अपनी एक सर्जनात्मकता है, अपना एक आधुनिक ढंग है, जो संपर्क करते वक्त अपने आप से उभर आता है। इतना कहना चाहूँगा कि जिस तरह चीन, जापान, कोरिया और रूस में अंग्रेज़ी नहीं चलती, कौन कहेगा कि ये सारे देश इस वजह से कम आधुनिक बन सके?
आप स्वीडन के उप्साला विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे हैं। वहाँ हिंदी भाषा-शिक्षण की क्या स्थिति है? कृपया वॉय्स ऑफ़ जर्मनी की वर्तमान स्थिति के बारे में बताएँ।
हमारे विश्वविद्यालय में भाषा वांड़्मय और भाषा विज्ञान का विभाग है। यहाँ एशिया की बहुत सारी भाषाएँ पढ़ायी जाती हैं। प्रमुख भाषाओं में लैटिन, ग्रीक, चीनी, अरबी, फ़ारसी, टर्किश और हिंदी हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के कानूनगो विलियम जोंस ने कालिदास रचित ‘रघुवंश’ महाकाव्य और अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि महाकाव्यों का अनुवाद भी किया है। भारत और यूरोप की भाषाओं के अन्तःसंबंध के कारण हिंदी के प्रति अभिरुचि बढ़ी है। हमारा संस्थान बहुत बड़ा है। इसमें चीनी भाषा सीखने वाले छात्रों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। फिर भी हिंदी की स्थिति ठीक है। स्वीडन में तो संस्कृत 19वीं सदी से ही पढ़ायी जाती है। पर अब छात्रों की माँग आधुनिक भाषाओं की ओर अधिक है। वॉय्स ऑफ़ जर्मनी में हिंदी, उर्दू और बांग्ला जारी है, किन्तु श्रोताओं की कमी के कारण संस्कृत की सुविधा बंद हो गई है।
क्या हिंदी साहित्य की पुस्तकों का जर्मन या स्वीडिश भाषा में अनुवाद हुआ है? इसमें कौन-सी कठिनाई आती है?
कहते हैं कि मनुष्य हमेशा अपनी मातृभाषा में ही सपने देखता है। मेरी मातृभाषा जर्मन है और मैं भी जर्मन में ही सपने देखता हूँ। अनुवाद एक कला है। जब तक आपको लक्ष्य और स्रोत भाषाओं का गहरा ज्ञान नहीं होगा, अनुवाद साहित्यिक नहीं हो पाता है। मैंने अपने दो साथियों के साथ हबीब तनवीर के नाटक 'आगरा बाज़ार' और उदय प्रकाश के उपन्यास 'पीली छतरी वाली लड़की' का हिंदी से जर्मन में अनुवाद किया है। इसके अलावा कई कहानियाँ और कविताएँ भी अनुवादित की हैं, जैसे कि जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रो. अजय नावरिया की कहानी 'गोदना’ का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है। आवश्यकता है कि विश्व की अन्य श्रेष्ठ पुस्तकों का भी हिंदी में अनुवाद किया जाए। हिंदी के प्रचार की जगह हिंदी साहित्य के अनुवाद की गुणवत्ता को आगे बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। हमको अनुवाद और अनुवादकों के शिक्षण-प्रशिक्षण पर बहुत ज़्यादा ध्यान देना है।
हिंदी के विकास में किस प्रकार की चुनौतियाँ है?
सबसे बड़ी चुनौती है, मानसिकता। हिंदी के साथ कभी भी हीनता की भावना नहीं रखनी चाहिए। मेरी जानकारी में अनेक ऐसे विद्वान हैं, जो हिंदी के हक के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाते हैं, किंतु उसी वक्त हर किसी की तरह अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल ज़रूर भेजते हैं। मैं खुद अंग्रेज़ी के खिलाफ़ नहीं हूँ। आजकल अंग्रेज़ी उपन्यास के कितने बड़े-बड़े लेखक उभर आए हैं। हिंदी की स्थिति पहले भारत में ही सुदृढ़ होनी चाहिए, तब जाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे स्थापित किया जा सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में यह एक अधिकारिक भाषा अपने आप से बनेगी। भाषा के प्रति हमारे मन में सम्मान का भाव होना ज़रूरी है।
हिंदी के विकास में किन विदेशी मूल के विद्वानों के योगदान का आप उल्लेख करना चाहेंगे?
अंग्रेज़ी शासन के दौरान कुछ विदेशियों ने गहरी दिलचस्पी लगाकर भारत में व्याकरण, भाषा, शब्दकोश, धर्म, इतिहास को समझने का प्रयास किया। चाहे वे फ़्रांस के विद्वान गार्सा द तासी हों, इग्लैण्ड के डॉ. ग्रियर्सन या जर्मनी के मैक्सम्यूलर हों, सबने हिंदी की विकास यात्रा के मार्ग को प्रशस्त किया। फ़ादर कामिल बुल्के का योगदान अतुल्य है। मैक्सम्यूलर के कारण तो मुझे जर्मनवंश होने के नाते भारत में बड़ा सम्मान मिलता है।
आपको भोपाल में आयोजित 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में ‘विश्व हिंदी सम्मान’ प्रदान किया गया। विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन की उपादेयता के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
मेरे लिए यह सम्मान मिलना बहुत बड़े आदर की बात है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इस सम्मान के ज़रिए हमारा सार्थक संबंध स्थापित हो। इस परस्पर संबंध का एक महत्त्वपूर्ण कदम नमूने के तौर पर आपको बता रहा हूँ। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी परीक्षा का एक अंतरराष्ट्रीय ढाँचा बनाना चाहिए, जिस तरह से दूसरी ज़ुबानों के लिए उपलब्ध है। वेबसाइट/पोर्टल पर हिंदी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो। इसके अलावा हिंदी साहित्य से विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होने चाहिए और अनुवाद प्रयोजनमूलक न होकर कलात्मक हो। अनूदित सामग्री सरस होनी चाहिए। भाषा में मौलिकता दिखनी चाहिए। अनुवाद सही होगा, तभी हिंदी साहित्य की शान बढ़ेगी।
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