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रचनाः डॉ. केदार सिंह
तिथिः 05 जून 2021
श्रेणीः  संस्मरण

रचना परिचयः

मेरी बलवती इच्छा थी कि एक बार बुल्के सर से मिलकर, मैं उनका अभिवादन करूँ। डॉ. बुल्के उस समय स्थायी रूप से मनेरसा हाउस, पुरूलिया रोड, राँची, झारखण्ड में निवास कर रहे थे। कुछ ऐसा संयोग बना कि मेरी उनसे मुलाकात हो ही गई। लेकिन जानते हैं, पहली ही मुलाकात में उन्होंने मुझे किस बात पर झिड़क दिया?

हिंदी के विकास पुरुष : फ़ादर बुल्के

- डॉ. केदार सिंह

बात उन दिनों की है, जब मैं 1981 ई. में राँची में रहकर इण्टरमीडिएट की पढ़ाई कर रहा था। उस समय तक कामिल बुल्के का नाम यश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुका था। मेरी बलवती इच्छा थी कि एक बार बुल्के सर से मिलकर, मैं उनका अभिवादन करूँ। डॉ. बुल्के उस समय स्थायी रूप से मनेरसा हाउस, पुरूलिया रोड, राँची, झारखण्ड में निवास कर रहे थे। उसी समय मेरे एक मित्र आनन्द सिंह, जो सेंट ज़ेवियर कॉलिज, राँची से इण्टरमीडिएट कर रहे थे, उनका भी निवास पुरूलिया रोड में संध्या सिनेमा के पास था। मैंने आनन्द जी से आग्रह किया कि एक दिन मनेरसा हाउस, बुल्के सर से मिलने के लिए चला जाए। जनवरी का महीना था। क्रिस्मस की छुट्टी के बाद कॉलिज खुल गए थे। एक संध्या हम दोनों जब मनेरसा हाउस पहुँचे, उस समय हमसे पूर्व ही दो व्यक्ति वहाँ पहुँचे हुए थे। उनकी बातों से लगा कि वे दोनों रिश्ते में चाचा-भतीजे थे। भतीजे ने बुल्के सर को संबोधित करते हुए कहा “सर! ये मेरे अंकल हैं।” इतना सुनते ही बुल्के सर ने झिड़कते हुए भतीजे से कहा “तुम्हारी भाषा इतनी समृद्ध है और तुम दीन-हीन भाषा अंग्रेज़ी में ‘अंकल’ कह रहे हो। अंग्रेज़ी के एक ‘अंकल’ शब्द से चाचा, फूफा, मौसा, मामा तथा पिता के दोस्त आदि अनेक रिश्तों का बोध होता है। जबकि हिंदी में हर रिश्तों के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं। इस दृष्टि से हिंदी काफ़ी समृद्ध है। अगर तुम अंकल की जगह ‘चाचा’ कहते, तो बेहत्तर होता।” इतना सुनते ही वह व्यक्ति झेंप गया और उनसे माफ़ी माँग ली।

हिंदी से इनकी इस प्रकार की आत्मीयता ने हमें मंत्रमुग्ध कर लिया। उनकी लंबी कद-काठी, गोरा वर्ण, सफ़ेद, भूरी दाढ़ी, नीली-नीली गोल-गोल आँखों से गज़ब का स्नेह झलक रहा था। करीब आधे घंटे तक हिंदी भाषा, मानवता की सेवा से संबंधित हमारी उनसे बातें हुईं। फिर प्रसन्नता लिए हम लोग वापस लौट आए।

1986 ई. में जब मैंने स्नातकोत्तर (हिंदी), राँची विश्वविद्यालय, राँची में नामांकन करवाया उस समय हमारे गुरु डॉ. वचनदेव कुमार, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, डॉ. सिद्धनाथ कुमार, डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी, डॉ. महेन्द्र किशोर, डॉ. नागेश्वर सिंह, डॉ. जंग बहादुर पांडेय, डॉ. मंजू ज्योत्स्ना आदि सभी किसी न किसी रूप में बुल्के सर से प्रभावित दिखे, जैसा कि प्रसंगवश समय-समय पर उनसे संबंधित चर्चाएँ विभाग में होती रहीं।

हिंदी के अनन्य भक्त, संत, साहित्यकार डॉ. फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितंबर, 1909 ई. को बेल्जियम के पश्चिम फ़्लैण्डर्स प्रांत के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ था। डॉ. बुल्के के पिता का नाम अदोलक तथा माता का नाम मरियम था। डॉ. बुल्के के माता-पिता दोनों ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ एवं धर्मनिष्ठ थे। माता मरियम में सेवा एवं सहानुभूति के गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। एक दिन डॉ. दिनेश्वर प्रसाद सर ने बताया कि बुल्के साहब में पिता से बलिष्ठ शरीर और कर्मशक्ति तथा माता से भावुक हृदय और सेवा भाव मिला था और धर्म के प्रति निष्ठा माता और पिता दोनों से प्राप्त हुई थी। यह सत्य है कि उन्हें माता और पिता दोनों के सर्वोत्तम गुण मिले थे, किन्तु उनके आरंभिक जीवन में सर्वाधिक प्रभाव माता जी का पड़ा था, क्योंकि पिता को अनिवार्य सैनिक भर्ती नियम के तहत प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होना पड़ा था। युद्ध के दौरान उन्हें बन्दी भी बना लिया गया था। लड़ाई समाप्त होने के बाद घर लौटे। तब तक डॉ. बुल्के एवं उनके अन्य भाइयों का माता मरियम ने ही अकेले लालन-पालन किया था। इस कारण डॉ. बुल्के माता से अधिक प्रभावित हुए।

डॉ. बुल्के बेल्जियम के जिस गाँव के थे उससे सटे लिस्सेबेगे गाँव में 13वीं शताब्दी में निर्मित कुँवारी मरियम का एक विशाल गिरजाघर है, जो अपनी ऊँची मीनार, कलात्मकता एवं चमत्कारपूर्ण कहानियों के लिए जगत प्रसिद्ध है। बचपन से ही फ़ादर बुल्के उस गिरजाघर में जाया करते थे। वे गाँव के जिस कोन्वेंट स्कूल में अध्ययन कर रहे थे, वहाँ की प्रिंसिपल मदर सुपीरियर गेरट्रूड के व्यक्तित्व से काफ़ी प्रभावित थे। दूसरी ओर मदर गेरट्रूड को भी बालक बुल्के के व्यक्तित्व में न जाने क्या दिखाई पड़ा, जो उन्होंने उनसे कहा “गॉड से संन्यासी बनने का वरदान माँगना।” कोन्वेंट की शिक्षा के बाद डॉ. बुल्के का नामांकन गाँव के ही नगरपालिका स्कूल में कराया गया। लिस्सेवेगे में हाई स्कूल नहीं था। अतः 1921 ई. में नज़दीक के गाँव ब्रुगे के सेंट फ़्रांसिस ज़ेवियर हाई स्कूल में दाखिला करवाया गया। 1928 ई. में हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में भी उन्हें प्रथम स्थान मिला, इसके पश्चात् फ़ादर कामिल बुल्के ने लूवेन इंजीनियरिंग कॉलिज में नामांकन करवाया। लूवेन इंजीनियरिंग कॉलिज की दूरी उनके घर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर थी। यहाँ उन्होंने छात्र राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई। एक बार जब छुट्टियों में प्रथम वर्ष इंजीनियरिंग की परीक्षा की तैयारी के लिए गाँव आए, उन्हीं दिनों उनके जीवन में एक अद्भुत घटना घटी, जिससे उनके जीवन की गति अलग दिशा की ओर मुड़ गई।

एक दिन संध्या समय जब घर के सभी सदस्य घर से बाहर गए हुए थे, उस एकांत समय में एकाग्रता पूर्वक कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। अचानक उनकी पीठ की ओर बिजली जैसी चमक आई और उसकी रोशनी में उन्हें यह ज्ञान मिला कि उनको इंजीनियर नहीं संन्यासी बनना है। इस घटना से उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह ईश्वर का आदेश है। इस क्षेत्र में मुझे जाना ही पड़ेगा। इंजीनियरिंग द्वितीय वर्ष की परीक्षा के समय तक उनके इस निर्णय से एक-दो लोगों को छोड़कर अन्य कोई अवगत नहीं था। परीक्षा के बाद एक दिन घर आकर उन्होंने अपने इस निर्णय से अपने माता-पिता को भी अवगत करवा दिया। तब माँ ने रोते हुए फ़ादर बुल्के से कहा “मैं प्रभु की इच्छा स्वीकार करती हूँ।” पिता जी ने भी सदा की तरह सहज भाव से धीरे से कहा “तुम्हारा घर पर होना हमारे लिए कितना अच्छा होता।” माता-पिता दोनों बेटे के इस निर्णय से आवाक् थे, क्योंकि उनके मन में एक स्वप्न पल रहा था कि बड़ा होकर कामिल घर का सहारा बनेगा, लेकिन उनके स्वप्न के विपरीत कामिल ने तो प्रभु की संत बनने की इच्छा को निष्ठापूर्वक स्वीकार कर लिया।

23.07.1930 ई. में फ़ादर बुल्के को गेन्त के पास ड्रांगन जेसुइट नव शिष्यालय में प्रारंभिक धर्म शिक्षा के लिए दाखिला करवाया गया। वहाँ से दो वर्षों के बाद 1932 ई. में हॉलैंड के बल्केनबर्ग जेसुइट केन्द्र में धर्म शिक्षा के लिए रखा गया। जहाँ संन्यास संबंधी निर्णय पर पुनर्विचार का भी विकल्प था। पर डॉ. बुल्के अपने इस निर्णय पर अटल थे। यहाँ उन्होंने लैटिन, ग्रीक, जर्मन भाषाओं के साथ ईसाई धर्म, दर्शन के भी ज्ञान प्राप्त किए।

1934 ई. में डॉ. बुल्के जब बाल्केनबर्ग से लूवेन लौटे, तो धर्माधिकारियों द्वारा उनके सामने दो विकल्प रखे गए - अपने ही देश में रहकर धर्म का प्रचार करें या दूसरे देश में जाकर धार्मिक सेवा कार्य करें। उन्होंने अपने एक स्थानीय व्यक्ति फ़ादर लीवेन्स के विषय में सुना था कि उन्होंने भारतवर्ष में आदिवासियों के बीच जाकर सेवा की है। इनका भी मन भारत जाकर सेवा करने के लिए मचल उठा। 20 अक्टूबर, 1935 को डॉ. बुल्के बेल्जियम से भारत आए। सबसे पहले मुंबई की धरती ने उनकी आगवानी की। पुनः मुंबई से आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखण्ड, राँची में उनका आगमन हुआ। राँची पहुँचने पर उनको प्रसन्नता इस बात की थी कि माँ उनकी विदाई के समय खुश थी, लेकिन जब यहाँ आए, तो पत्र के द्वारा ज्ञात हुआ कि उनकी विदाई के बाद माँ रोते-रोते बेहोश हो गई थी। 10 नवंबर, 1935 ई. को माँ के द्वारा लिखा गया एक पत्र डॉ. बुल्के को प्राप्त हुआ। इस पत्र में वात्सल्य एवं धर्म के प्रति कर्तव्यबोध का समन्वय दिखता है। पत्र का अनुवाद इस प्रकार है -

“प्रिय कामिल,

तीन सप्ताह पहले तुम चले गए। अब तक तुम अपने गंतव्य तक पहुँच गए होगे। कामिल, विश्वास रखना कि मैं रोई, बहुत रोई, तुम्हारे जाने के बाद। मैं तुम्हारा विरोध नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मुझे तुम पर बहुत गुमान है, किन्तु मैं तुम्हारी माँ हूँ, मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। इसी कारण तुम्हारी विदाई के समय मुझे बहुत तकलीफ़ हुई। बेटा विश्वास रखना मैं रोती हूँ, इसलिए नहीं कि मैं दुखी हूँ। मैं भगवान को धन्यवाद देती हूँ कि उन्होंने मुझे तुम्हारी तरह संतान दी है। मैं प्रार्थना करूँगी कि तुम वहाँ स्वस्थ रहकर भलाई कर सको।

स्मृतियों में रखने वाली, तुम्हारी माँ।”

पत्र पढ़ने के बाद फ़ादर बुल्के को बहुत अफ़सोस हुआ, किन्तु जिस रास्ते पर निकल पड़े थे, वहाँ से लौटना नामुमकीन था।

1936 ई. में फ़ादर बुल्के को राँची से दार्जिलिंग, संत जोसेफ़ कॉलिज में भौतिकी एवं रसायन पढ़ाने के लिए भेजा गया, किन्तु वहाँ मौसम की प्रतिकूलता की वजह से उन्हें पुनः राँची वापस आना पड़ा। यहाँ आकर गुमला के संत इग्नेशियस स्कूल में गणित अध्यापन करने लगे। इतने दिनों में उन्होंने महसूस किया कि यहाँ की जनता के हृदय में उतरने के लिए हिंदी जानना अति आवश्यक है। उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य एवं काफ़ी दुख भी हुआ कि यहाँ विदेशी भाषा अंग्रेज़ी को हिंदी की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है, क्षेत्रीय भाषाएँ भी उपेक्षित हैं। उन्होंने यह तय किया कि भारत की मातृभाषा हिंदी सीखेंगे और अंग्रेज़ी की जगह उसे स्थापित करने में सहयोग करेंगे। अतः उन्होंने गुमला से ही हिंदी सीखना प्रारंभ किया।

संयोग से अभी मैं जहाँ हूँ, यहीं सीतागढ़, हज़ारीबाग के पंडित बदरीदत्त शास्त्री से उन्होंने 1938 ई. में पूरे एक वर्ष तक संस्कृत एवं हिंदी की शिक्षा ली। अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण डॉ. बुल्के ने हिंदी एवं संस्कृत पर इतना अधिकार प्राप्त कर लिया कि अब उन्हें हिंदी एवं संस्कृत के ग्रंथों का अध्ययन एवं अध्यापन करने में कोई समस्या नहीं रही। उनके इस भाषा ज्ञान की क्षमता को देखकर पंडित बदरीदत्त शास्त्री ने उन्हें ‘चलता-फिरता शब्द कोश’ की उपाधि दे दी। 1939 ई. में डॉ. बुल्के विशेष धार्मिक-शिक्षा ग्रहण करने के लिए कर्सियांग चले आए। चार वर्षों तक धर्म शिक्षा ग्रहण करने के दौरान उन्होंने फ़ादर बायार्त के निर्देशन में ‘न्याय-वैशैषिक के ईश्वरवाद’ पर एक लघु शोध-प्रबंध लिखा। वहीं फ़ादर बोल्कार्ट की सहायता से उन्होंने ‘द सेवियर’ नामक पुस्तक की रचना की। यह ईसा की जीवनी से संबंधित उनकी पहली मौलिक कृति थी। बाद में उन्होंने 1940 ई. में ‘मुक्तिदाता’ नाम से स्वयं इसका हिंदी में अनुवाद किया। डॉ. बुल्के ने बहुत कम समय में ही अपनी मेहनत के बल पर हिंदी एवं संस्कृत भाषा पर और भी अधिक पकड़ मज़बूत कर ली। 1940 ई. में फ़ादर बुल्के ने हिंदी साहित्य सम्मेलन की ‘विशारद’ परीक्षा पास की।

समय बीतता गया फ़ादर बुल्के हिंदी के प्रति और अधिक समर्पित होते गए और हिंदी से एम.ए. करने के लिए मन बना लिया। किन्तु समस्या यह थी कि वे किस विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. करें? उस समय भारतवर्ष में अनेक विश्वविद्यालयों में एम.ए. की पढ़ाई होती थी। इसके लिए उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों का भ्रमण भी किया। अंत में डॉ. बुल्के ने इसके लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय को चुना। वहाँ के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को एक पत्र के माध्यम से इसके लिए निवेदन भी किया, किन्तु बहुत दिनों तक कोई उत्तर नहीं पाकर, उन्होंने स्वतंत्र छात्र के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में स्नातक की परीक्षा पास की। इसके बाद हिंदी में एम.ए. करने के लिए डॉ. बुल्के ने स्वयं इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाकर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा से मुलाकात की। किन्तु डॉ. वर्मा ने कहा कि यहाँ किसी विदेशी का एम.ए. करने का प्रावधान नहीं है, किन्तु उनके हिंदी-ज्ञान की जानकारी के लिए उन्होंने विनय पत्रिका के दो पदों की व्याख्या करने को कहा। डॉ. बुल्के ने उन पदों की इतनी भावप्रवण व्याख्या की कि उपस्थित तमाम लोग आश्चर्यचकित रह गए। तब विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने विशेष परिस्थिति में उन्हें एम.ए. करने की अनुमति दे दी।

1947 ई. में एम.ए. पास करने के बाद डॉ. बुल्के ने डॉ. माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में ‘राम कथा : उत्पत्ति और विकास’ शीर्षक पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इस विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने लगातार 18 वर्षों तक काम किया। उन्होंने इसके लिए संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, बंगला, तमिल के साथ तिब्बती, बर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में राम की कथा को ढूँढने का प्रयास किया। परिणाम स्वरूप इसमें रामकथा से संबद्ध अनेक नवीन तथ्य जुड़ते गए और राम की कथा को एक व्यापक भाव भूमि प्राप्त हुई। 1950 ई. में इस विशेष अनुसंधानपरक ग्रंथ के प्रकाशन से डॉ. बुल्के की ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर की हो गई।

एक महत्त्वपूर्ण बात और यहाँ निवेदन करना चाहूँगा है कि जिस समय डॉ. बुल्के शोध कर रहे थे, उस समय तक भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध-ग्रंथ अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे। उन्होंने सर्वप्रथम इस परंपरा से अलग हटकर अपने शोध-प्रबंध को हिंदी भाषा, देवनागरी लिपि में लिखा। जबकि अंग्रेज़ी में प्रबंध लिखना उनके लिए ज़्यादा आसान था, बावजूद इसके उन्होंने हिंदी में लिखा। यह इनका हिंदी के प्रति लगाव तथा हिंदी की समृद्धि में अभूतपूर्व योगदान है। इस पुनीत कार्य के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा भी धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने डॉ. बुल्के द्वारा हिंदी में शोध-प्रबंध लिखने के आग्रह पर विश्वविद्यालय की शोध संबंधी नियमावली में ही परिवर्तन कर दिया।

1950 ई. में ही सेंट ज़ेवियर कॉलिज, राँची में उन्हें हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। 1960 ई. तक विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन रहते हुए उन्होंने इण्टर से लेकर बी.ए. ऑनर्स तक के विद्यार्थियों को पढ़ाया। इस तरह उन्होंने हिंदी के लिए एक सफल शिक्षक के रूप में अध्यापन किया। कुछ दिनों बाद विद्यार्थियों की विरक्ति देखते हुए उन्होंने तय किया कि अब अध्यापन कार्य से मुक्त होकर स्वतंत्रतापूर्वक लेखन करना चाहिए। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें अध्यापन कार्य से मुक्त कर दिया गया। तबसे लेकर 1982 ई. तक सतत् लेखन एवं दीन, दुखियों की सेवा में लगे रहे।

उन्होंने डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के साथ प्रमुखतः शोध-अनुसंधान, कोश-निर्माण, अनुवाद आदि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किए। कुल मिलाकर 29 पुस्तकें, लगभग 60 शोध-निबंध, अंग्रेज़ी-हिंदी शब्द कोश तथा अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद भी किए। किंतु हिंदी में उनकी विशेषज्ञता का मुख्य विषय ‘तुलसी साहित्य’ ही रहा। उनकी तुलसी विषयक दृष्टि की जानकारी के लिए ‘राम कथा और तुलसी’ तथा ‘मानस कौमुदी’ विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। हिंदी सीखने की सुविधा के लिए उन्होंने ‘ए टेक्निकल इंग्लिश-हिंदी ग्लासरी’ नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक की रचना की। उनके अंग्रेज़ी-हिंदी कोश के अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद के क्षेत्र में उन्होंने मॉरीस मेटरलिंक की प्रसिद्ध नाट्य कृति ‘द ब्लू बर्ड’ का ‘नीलपंछी’ नामक अनुवाद किया, जो 1958 ई. में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित किया गया। बाइबल से संबद्ध अनेक पक्षों का हिंदी अनुवाद भी उल्लेखनीय हैं। हिंदी के विकास के क्षेत्र में ‘अंग्रेज़ी-हिंदी कोश’ का भी काफ़ी योगदान है। इस कोश को पढ़कर अनके लोगों ने हिंदी सीखी। आज भी अनेक सरकारी गैर सरकारी कार्यालयों में इसकी मदद से हिंदी अनुवाद आसानी से किया जाता है। इस कोश की विशेषता को रेखांकित करते हुए हिंदी के महान लेखक इलाचन्द्र जोशी ने कहा है कि “यह कोश न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी के नये पाठकों के लिए उपयोगी है, वरन् हम जैसे लेखकों के लिए भी बहुत उपयोगी है।”

हिंदी तथा तुलसी के प्रति इतनी गहरी निष्ठा देखकर ऐसा लगता है कि ‘फ़ादर बुल्के’ कहीं तुलसी के अवतार तो नहीं थे? भारत सरकार द्वारा ऐसे महान संत तुलसी प्रेमी, हिंदी प्रेमी, भारत प्रेमी डॉ. बुल्के को 1974 ई. उनके इस महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने ‘राम कथा : उत्पत्ति और विकास’ के विषय में लिखा है कि यह ग्रंथ वास्तव में राम कथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश है।

जून 1982 ई. में उनके दाहिने पैर की उंगली में गैंग्रीन नामक बीमारी हो गई। ऐसे तो 1950 ई. से ही उनके बलिष्ठ, गौर वर्ण शरीर में अनेक बीमारियाँ घर कर गई थीं। सबसे पहले कान खराब हुए, फिर पेष्टिक अल्सर हुआ, फिर ब्लड प्रेशर, फिर गुर्दे की बीमारी, फिर हार्ट की बीमारी के कारण ये अन्दर से टूट से गए थे, फिर भी इन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। हिंदी और हिंदुस्तान के लिए अंतिम क्षण तक इन्होंने अपने शरीर का एक-एक बूँद निचोड़कर दे दिया। मृत्यु के पूर्व वे काल से सिर्फ़ चार सौ घंटे की मोहलत बाइबल के अनुवाद के लिए माँगते रहे, मौत से संघर्ष करते रहे, किन्तु इस गैंग्रीन ने तो 1982 ई. में साँसें ही छीन ली। और बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट के हिंदी अनुवाद का स्वप्न अधूरा रह गया।

डॉ. बुल्के विदेशी होकर भी हम भारतीयों से अधिक भारतीय, हमसे अधिक हिंदी सेवी, हमसे अधिक तुलसी, राम के उपासक तथा दीन-दुखियों के सेवक थे। ऐसे महान संत का हिन्दुस्तान ही नहीं संपूर्ण विश्व-हिंदी समाज सदा ऋणी रहेगा।

-kedarsngh137@gmail.com

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